बच रहे थे दो / हनुमानप्रसाद पोद्दार
बच रहे थे दो, नहीं जग-भान था।
लोक-साका मिटा सब जान था॥
नहीं कुछ कर्तव्य मनमें शेष था।
नहीं तिलभर जगत्-स्मृतिका लेश था॥
मिट गया सब भोगका अस्तित्व था।
कर्म था न कहीं तनिक कर्तृत्व था॥
मैं तथा मेरे हृदय-धन श्याम थे।
खेलते रहते सदा अविराम थे॥
थी नहीं मनमें कहीं कुछ वासना।
थी नहीं कुछ भी किसीकी त्रासना॥
अखिल प्राणि-पदार्थ थे मनसे हटे।
सभी ममता-रागके बन्धन कटे॥
श्याम शेषी, मैं उन्हींकी शेष थी।
एक यह ’प्यारी अहंता’ शेष थी॥
एक ’प्रिय’ हैं, ’प्रिया’ उनकी एक मैं।
एक ’वे’ बस, दूसरी हूँ एक ’मैं’॥
नहीं दोसे भिन्न कुछ भी था कहीं।
सब सिमट मिटकर समाया था यहीं॥
चल रही दो में सदा रँगरेलियाँ।
हो रही थीं सुखमयी रस-केलियाँ॥
था नहीं व्यवधान कोई भी कहीं।
एक ही दो बने लीलारत वहीं॥
दो मिटे, फिर, एक ही बस हो गये।
भेद सारे सब तरहके खो गये॥
मैं समायी श्याममें हो श्याम ही।
प्रिया बन मुझमें समाये श्याम भी॥
कौन जाने श्याम हैं या राधिका ?
नहीं अब आराध्य हैं, आराधिका॥
सब तरह घुल-मिल हुए बस, एक हैं।
इन्द्रियाँ, मन, चिा, मति न अनेक हैं॥
सभी अवयव अंग आपस में मिले।
एक ही प्रिय मधुरिमासे हैं खिले॥
एक थे पहले, अभी भी एक हैं।
यही दोनोंकी मधुमयी टेक है॥