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बबूल का फूल / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
चट्टानों पर तैरती
सुबह की पिली धूप
अब नहीं दिखती मेरे आस – पास
झड रहे हैं शिरीषं के पत्ते
जैसे सिमटता जा रहा हो
मेरे उपर का आसमान
गौरैये की चोंच
कूंचा गई है इस बार भी
हवा में उछलते धूलकडो से
और पत्त्थरों की वर्षा से
कहर उठा है सारा गाँव
काकी भूल जाती
घर की बटुली
पिता खो आते
बाज़ार में
पूर्वजों की रखी हुई शान
अब क्या किया जाए
कहीं दिखता नहीं हमें
घर के पिछवाड़े में उगा
बबूल का एक भी फूल