भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बस का सफ़र / निदा फ़ाज़ली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं चाहता हूँ
यह चौकोर धूप का टुकड़ा
उलझ रहा है जो बालो में
इसको सुलझा दूँ
यह दाएँ बाजू पर
नन्ही-सी इक कली-सा निशान
जो अबकी बार दुपट्टा उड़े
तो सहला दूँ
खुली किताब को हाथों से छीनकर रख दूँ
ये फ़ाख़्ताओं से दो पाँव
गोद में भर लूँ

कभी-कभी तो सफ़र ऐसे रास आते हैं
ज़रा सी देर में दो घंटे बीत जाते हैं