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बहारें हैं फीकी, फुहारें हैं नीरस / राम प्रसाद शर्मा "महर्षि"
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बहारें हैं फीकी, फुहारें हैं नीरस
न मधुमास ही वो, न पहली-सी पावस
हवाएँ भी मैली, तो झीलें भी मैली
कहाँ जाएँ पंछी, कहाँ जायें सारस
उन्हें चाहिये एक सोने की लंका
न तन जिनके पारस, न मन जिनके पारस
वो सम्पूर्ण अमृत-कलश चाहते हैं
कि है तामसी जिन का सम्पूर्ण मानस
जो व्रत तोड़ते हैं फ़क़त सोमरस से
बड़े गर्व से ख़ुद को कहते हैं तापस
हुआ ईद का चाँद जब दोस्त अपना
तो पूनम भी वैसी कि जैसी अमावस
अखिल विश्व में ज़हर फैला है 'महरिष'
बने नीलकंठी, है किसमें ये साहस.