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बात सच्ची थी तो मैं भी अड़ गया / डी. एम. मिश्र

बात सच्ची थी तो मैं भी अड़ गया
इक अकेला फ़ौज से भी लड़ गया

नेवले से था छुड़ाया साँप को
साँप वो मेरे गले ही पड़ गया

जांय पशु पंछी बेचारे अब कहाँ
ताल का पानी तो सारा सड़ गया

आँख मैंने खोल रक्खी थी ज़रूर
पर , अचानक आँख में कंकड़ गया

दूर तक दिखता नहीं मुझको बसंत
मान लूँ कैसे भला पतझड़ गया

दंभ में आकर हुई ऐसी ख़ता
शर्म के मारे ज़मीं में गड़ गया

यकबयक सब लोग धोखा खा गये
बंद पिंजरे से सुआ जब उड़ गया