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बारिश और भगवान / मुकेश निर्विकार
Kavita Kosh से
कुछ लोग ऋतुओं के आने की बाट जोहते हैं
तो कैच लोग ऋतुओं के टल जाने की रहा देखते हैं
कुछ लोगों के लिए वर्षा की फुहार
आनंद बरसाती हिय
तो बहुत लोगों की झोपड़ियों से
टपकती है तेजाबी बूंद बनकर
छ्परोन से ताप-टप-टप-टप-टप...
भीगता है जिसमें मुन्ना का बिछोना तमाम
वैसे कभी भीजने नहीं देती जिसे
उसके चपल सुतैमन महतारी
धनियाँ तो अक्सर कह दी देती है
टपकते अपने छप्पर में भीगती
सामान इधर-से-उधर करती असहाय
की बरखा के बहाने
हमारे दलिद् दर पर
मूतता है भगवान
गरीबों का घर न टपके
ऐसी भगवान के पास कोई बारिश नहीं
गरीबों के टूटे छप्पर न हो जिसमें
ऐसी भगवान के पास कोई दुनिया भी नहीं!