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बाहर के मधुबन से / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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बाहर के मधुबन से टूटा नाता,
पर क्या हो भीतर के नन्दन-वन का!

तैरते रंग अन्तर-धाराओं में
गुह्यतम गुफाएँ सौरभ गाती हैं,
जन्मान्ध घाटियाँ झील-झील होतीं
संवेगों में तितलियाँ नहाती हैं,

बाहर के सावन से टूटा नाता,
पर क्या हो भीतर के नन्दन-वन का!

आँखों की ओट छिपी सौ-सौ आँखें
घूमते स्वप्न मीना-बाज़ारों में,
अधरों की ओट खुली मधुशालाएँ
अन्तरर्ध्वनियाँ झूमती बहारों में,

बाहर के गुंजन से टूटा नाता,
पर क्या हो भीतर के कल-कूजन का!

मैं प्रथम छन्द संसृति के उस क्षण का
जिसने फूलों को गन्ध कहा होगा,
मैं काल-पात्र उस आदिम यौवन का
जो विम्बों में आसक्त रहा होगा,

बाहर के दर्पण से टूटा नाता,
पर क्या हो भीतर के सम्मोहन का!