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बाहर वालों से अब ख़तरा नहीं रहा / डी. एम. मिश्र

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बाहर वालों से अब ख़तरा नहीं रहा
घर वालों का मगर भरोसा नहीं रहा

पूरा घर मेरा बनवाया, इसी में अब
मेरी ख़ातिर इक भी कमरा नहीं रहा

चुप हो जाना ही बेहतर , जब पुत्र कहे
पापा जी , अब मैं भी बच्चा नहीं रहा

अपने ही अपने होते हैं सुना तो था
मेरा मगर तजुर्बा अच्छा नहीं रहा

धन के पीछे ऐसे सब पड़ गये कि बस
कोई भी रिश्ता अब अपना नहीं रहा

एक समंदर लहराता था कभी जहाँ
क्या दुर्दिन आया इक क़तरा नहीं रहा.