बिरहातुर, अति कातर, सब जग भूलि / हनुमानप्रसाद पोद्दार
बिरहातुर, अति कातर, सब जग भूलि, गई कालिंदी-तीर।
पकरि कदंब-डारि ठाढ़ी, ह्वै बावरि, बहत अमित दृग-नीर॥
चित नहिं धरत धीर नैकहु, पल-पल प्रति काँपि रह्यो मृदु गात।
कल न परत, हिय जरत, दाह अति दारुन, भरत आह, बिललात॥
अति आतुर ’प्रिय सखी’* आइ पहुँची, तहँ, देखि दसा, तजि धीर॥
बोली अति मृदु बैन मैन-मोहनको, लखि हिय बिंध्यौ सु-तीर॥
’सखि ! धीरज धरु, तजु गलानि, मैं जाइ तुरत सब हाल सुनाय।
प्रियतम मन-मोहन कौं अब हीं हौं अपने सँग लाउँ लेवाय’॥
प्रिय सखिके मृदु वचन सुनत, भूली प्यारी निज तन को भान।
प्रियतम-रूप भई मन, तेहि छिन, करन लगी निज गुन-गन-गान॥
’हा राधे ! प्रानेस्वरि ! हा मनहरनि ! मधुर सुन्दरता-खानि।
सद्गुन-निधि, नित-नव सुखदायिनि, सुमिरत होत सकल दुख-हानि॥
हौं नित बि?यौ हाथ तुव स्वामिनि ! बिना मोल को चेरौ मान।
प्यारी ! मधुर दरस-रस कौं तुव तड़पि रहे ये प्यासे प्रान॥
छायौ अति दारुन वियोग-विष तुव, सब तन अति विषम अपार।
मुख-ससि-सुधा सींचि सत्वर, विष हरु, अब पिय कौं लेउ उबार’॥
प्रिय सखि आई हुती, तबहिं प्यारे हू हे पहुँचे तहँ आइ।
दसा प्रेम-वैचिय मधुर प्यारी की निरखत रहे लुकाइ॥
’हा प्रियतमे ! राधिके ! प्रानाधिके ! प्रान-पुालिके ! हाय !’
कहि यों, मूर्छित परी अवनि, ह्वै प्रकट स्याम ने लई उठाय-
भुज भरि, निज पट पीत डासि महि, दी ता पर सुवाइ अभिराम।
मस्तक राखि समोद गोद निज, मुख-छबि निरखन लगे ललाम॥
गाल-भाल के घर्मबिंदु दृग-सलिल पौंछ निज पट नँद-लाल।
भए द्रवित मन, तन पुलकित, दृग प्रेम-सलिल छाये ततकाल॥
मृदु मधु निज कर-अँगुरिन तें प्रिय लगे सँवारन कुंचित केस।
प्रियतम लखि प्यारी-सेवा-रत प्रिय सखि भई मुदित सबिसेस॥
खोलि नयन छिन, निरखि स्याम-घन, ’हा हृदयेस्वरि !’ कहि ते काल।
मूँदे पुनि, मुख-पंकज-मधु पी, भये स्याम-दृग-मधुप निहाल॥
भई अर्ध-चेतन प्यारी तब, पुनि-पुनि खोलत-मूदत नैन।
घोरि अमिय-रस मधुर अमित पिय बोले अति बिनम्र सुचि बैन॥
’नयन उघारि तनिक मो तन निरखौ तुम, हे मम जीवन-मूरि !
सेवक हौं तुव चरननि कौ नित, करौ न मोहि नैकु पल दूरि’॥
पिय के बचन सुधामय सुनि, करि पूर्न चेत, उठि बैठी बाल।
दोउन के कन-कन उमग्यौ अति प्रेम-सुधा-सागर सुबिसाल॥
सुखी भई सखि, नाचि उठ्यौ मन, जिमि घन लखि बन नाचत मोर।
भई सफल-जीवन लखि प्यारी-प्रीतम कौं आनंद-विभोर॥