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बीत गए जो मास मधु के / रामगोपाल 'रुद्र'

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बीत गए जो मास मधु के, सब प्रत्यक्ष समान, मेरे
ओ प्राणों के प्राण!

जीवन का जब भोर ही था, मानस हास-विभोर,
तुम चुपके-चुपके गगन में उग आए चितचोर;
और, चुराकर नींद मेरी, गूँजे बनकर गान मेरे
ओ प्राणों के प्राण!

नेह-भरा तो था दिया, पर आग बिना अँधियार;
सो तुमने क्या लौ जगाई, गेह हुआ उजियार;
लौ न बुझे, लौ की चिता पर फूल बने अरमान मेरे
ओ प्राणों के प्राण!

प्रेम कठिन सौदा यहाँ, बस, घाटे का व्यापार;
खोए लाखों-लाख मोती, मिला न मन का प्यार;
सच न हुए लो, स्वप्न ही तो जीने के सामान मेरे
ओ प्राणों के प्राण!

आए हो तुम इस घड़ी, जब घिर आई है रात;
खाली हाथों जा रही मैं, लेकर खाली मात;
क्या दूँ तुमको भेंट? ले लो, थाती हैं जो प्राण मेरे
ओ प्राणों के प्राण?