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बीत गया मेला दिन-भर का / रामगोपाल 'रुद्र'
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बीत गया मेला दिन-भर का, दिन-भर का यह मेला बीता!
सपना थ जो, सच हो आया!
तम पर छाई ज्योतिर्माया!
किन्तु, यहाँ क्या थिर रह पाया?
भर-भर घट सब छोड़ चले तट, पनघट फिर रीता का रीता!
उमड़े धुन सुन औढर जलधर,
गिरि से उतरे स्वर के निर्झर;
जगत जुड़ाया जीवन पाकर!
एक सँजीवन-टेक न टूटी, प्यासा घन का ही मनचीता!
शिशिर-चरण की रौंदी क्यारी
मृदु मुसकाई, बन फुलवारी;
सुख पर आई दुख की बारी
ऋतुपति-मिलन बिहँसकर हारा, अंत, निदाघ-बिरह ही जीता!