बेख़ौफ़ / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा
मैं होस्टल में रह रही बेटी से मिलकर लौट रही हूँ
उसके पापा लौटते हैं तो कोई बात नहीं
पर मैं हूँ तो उसे चिंता है
'रात है, सड़क सुनसान है, शहर नया है, घना अन्धेरा है
और आप अकेली हैं
मैं बस स्टॉप तक छोडऩे साथ चलूँगी’
मैं प्रश्न करती हूँ
'मेरे साथ तुम
मगर वापसी में तुम्हारे साथ कौन होगा
रात तब और घनी होगी’
वह समझाती है
'माँ, मैं होस्टल में रहकर बोल्ड हो गई हूँ
विदेश के दौरे कर आई हूँ
कई शहरों में सेमिनारों में गई हूँ, पर्चे पढ़े हैं
विमान-बस-ट्रेन सब तरह के सफर कर चुकी हूँ
मैं निडर हो गई हूँ’
मुझे उसका आत्मविश्वास देख कर खुशी होती है
पर वह निकलने से पहले कमरे की खिड़की से झांकती है
बाहर अंधेरे का अथाह समंदर है
खिड़की बंद करती है
मोबाइल पर कहती है
'शशांक, माँ को छोडऩे चलना है साथ चलो’
मुझे उस दिन का इन्तज़ार है
जब रात में अकेली माँ की चिंता बेटी को
बेटी की चिंता माँ को नहीं सताया करेगी
रात के अंधेरों से डर कर कोई लड़की
किसी शंशाक को नहीं बुलाया करेगी
अकेले बेख़ौफ़ आया-जाया करेगी