भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेझिझक, बेसाज़, बेमौसम के आ / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
बेझिझक, बेसाज़, बेमौसम के आ
ग़म की बारिश है तो आ, फिर जमके आ
खूब झम-झमकर बरस काली घटा
यों न दम लेती हुई थम-थमके आ
हम उन्हें कैसे सुनाएँ दिल की बात!
कह रहे हैं, 'बोल पर सरगम के आ'
और दम भर, और दम भर आँधियो!
दो न दस्तक दर पे यों शबनम के आ
जोहना क्या मुँह बहारों का, गुलाब!
तुझको आना है तो बेमौसम के आ