वह मेरे सामने है। इस वक़्त भी। हालाँकि बहुत पानी
बह चुका है। नदियों में। उस बात के बाद।
जब
मेरे भीतर मेरे औसत हिन्दुस्तानी
होने ने ज़ोर मारा था।
मैंने अपने ही घर की छत को नकारा था। एक
ख़याली आकाश को स्वीकारा था। कमरे की
खिड़कियाँ बंद करके ख़ुद को
सनातन क़ैदी घोषित किया था। माँ के बूढ़े
जिस्म की तुलना भारत-माता से की थी और
दोनों को रद्द कर दिया था।
और
तभी मुझे वह
पहली बार दिखा था--
खूंटियों पर कपड़ों की तरह टंगा। ठंडे चूल्हे में
राख की तरह बिखरा। माँ की पलकों को
बेजान बनाता। पिता के होंठों पर एक गिलगिली
थरथराहट पैदा करता। पत्नी
की स्वीकृतियों में मुर्दानगी भरता।
वह मुस्कुरा रहा था। मेरी
दुनिया की दुखती रग पर उंगली रख रहा था। इशारा
कर रहा था उस ओर, जहाँ मैंने
रामचरितमानस के गीता प्रेस वाले गुटके पर
काफ़्का का उपन्यास रख छोड़ा था या याद
दिला रहा था उस दिन की, जिस दिन मैने
छोटे भाई की वर्षगाँठ पर डेलकारनेगी की किताबें
दी थीं और इस तरह उसका ध्यान सांसारिक
सफलताओं की ओर मोड़ा था। और
तभी से
वह कभी भी मेरे सामने आकर
खड़ा हो जाता है। मुस्कुराता। खासकर तब
जब
मैं कविता के साथ होता हूँ। --लिख रहा
होता हूँ तो निब या पेंसिल की नोक बन जाता है। सुना रहा
होता हूँ तो श्रोता और अगर सिर्फ़ सोच रहा
होता हूँ तो
कनपटियों की नसों मे तब्दील हो जाता है।