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भीतरी दुर्गन्ध से / रामकुमार कृषक
Kavita Kosh से
भीतरी दुर्गन्ध से
बाहर भरा
आदमी बाहर नहीं
भीतर मरा !
बहुत अन्धियारी गुफाएँ
खुल गईं
उतरीं कहीं गहरे
जो बचा किसको दिखाएँ
क्या कहें
अन्धे स्वयं बहरे,
हो गया हर कोण से
मन खुरदरा !
छद्म संज्ञाएँ / मुखौटे ओढ़कर
बैठीं / बिठा पहरे
लोट छाती पर उठी
घुस पेट में नागिन
खड़ी लहरे,
जीभ कूदी बाँधकर
खुद उस्तरा !
25 अक्तूबर 1974