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भूख / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

कोई वस्त्रहीन तन ढकने को वस्त्र माँगता है
दे सकती हूँ पर देती नहीं

कोई ठण्ड में स्वेटर टोपी की हसरत लिए आता है
देने में सक्षम हूँ पर देती नहीं

जाने उसकी मंशा क्या है
पता नहीं मैं उसे टोपी पहनने को दूं
तब तक वो मुझे ही टोपी पहनाकर चलता बने

कोई भूखा रोटी माँगते हुए
घर की दहलीज़ तक चला आता है
दया आती है मन करता है उसे घड़ी भर बिठाऊँ
पानी पिलाऊँ रोटी खिलाऊँ

पर मैं नहीं जानती कि उसे रोटी ही चाहिए या कुछ और
असल में इस समय समाज में
कौन किस चीज़ का भूखा है कौन जाने

यह समय केवल भोग का ही नहीं
संशय, संदेह, डर और अविश्वास का भी है
जो भोग से कहीं ज्य़ादा खतरनाक है

शरीर का मरना तो मनुष्य का मरना है
पर विश्वास और प्रेम का मरना
मनुष्यता का मरना है