भूलने में सुख मिले तो भूल जाना / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
भूलने में सुख मिले तो भूल जाना ।
एक सपना-सा समझना ज्यों नदी में बाढ आना
भूलने में सुख मिले तो भूल जाना ।
थीं सुनी तुमने बहुत-सी जो लड़कपन में कहानी
शेष जिनकी सुधि नहीं — मैं था उन्हीं का एक प्राणी !
सोच लेना — था किसी अनजान पँछी का तराना ।
झूमते लय-भार से जिस राग के मिजराब सारे
भूल जाते वे उसे तत्क्षण — गगन ज्यों भग्न तारे
ठीक वैसे तुम मुझे यदि सुख मिले तो भूल जाना ।
भूल जाती गन्ध अपना कुँज जाती दूर जब उड़
भूल जाते प्राण काया छोड़ते ही शून्य में मुड़
हो कभी विह्वल न मेरी याद में भर अश्रु लाना ।
भूल जाता फूल डाली को क्षणों में ही बिछुड़कर
याद मेघों को न करती दामिनी भी आ धरा पर
बढ़ गया जो दीप उसमें अब न तुम बाती सजाना ।
वेदना इससे बड़ी होगी मुझे क्या और सुनकर
तुम विकल हो याद करती हो मुझे चीत्कार-कातर
क्यों उठे, मेरा वही फिर दर्द छाती का पुराना
भूलने में सुख मिले तो भूल जाना ।