भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मग जोहति मन व्यथित भामिनी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मग जोहति मन व्यथित भामिनी!
प्रियतम अजहुँ कुंज नहिं आये, बीति रही मधुमयी जामिनी॥
छटपटात अति प्रान मिलन कौं, चंद-बदनि सौंदर्य-धामिनी।
प्रेममयी प्रानेश्वरि राधा, साधारण नहिं जगत-कामिनी॥
हाय! हाय! क्योंप्रिय नहिं आये, विलखि विसूरति हृदय-स्वामिनी।
छायौ अति विषाद उर अंतर मति भ‌इ संतत सोक-गामिनी॥