भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन में समुद्र समा रहा / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन में समुद्र समा रहा, दृग से उलीचूँ किस तरह?

चन्‍दन-भरी मेरी तरी उतरी तुम्हारे कूल पर;
अपना लिया तुमने उसे, हँसकर पते की भूल पर!
तट पर तुहिन था और तुमको थी ज़रूरत आग की;
नौका धुआँ देने लगी, जागीं शिखाएँ त्याग की!

जल में मलय जलता रहा, तापा किये तुम तीर से;
बाड़व बुझाता मैं रहा, दो सीपियों के नीर से!
लिपटा प्रलय का दाह है, दृग में दरस की चाह है;
मैं नैन खोलूँ किस तरह, मैं नैन मींचूँ किस तरह?

विषपीड़ितों के दाह को थी शीतकर जिनकी शरण,
तूफान को जो भी बनाते थे सदाचारी पवन;
ऐसे सगुण अपराध से खण्डित जिन्हें होना पड़ा,
अर्चित चिता पर भी उसी अभिशाप से सोना पड़ा;

क्यों हो मुझे तुमसे गिला? तुम तो घिरे, घन बन गए;
अपनी रगड़ से आप ये श्रीखण्ड इन्‍धन बन गए!
बाहर अनल की आन है, भीतर तुम्हारा ध्यान है;
मैं साँस छोड़ूँ किस तरह, मैं साँस खींचूँ किस तरह?