भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मस्ती के फिर आ गये ज़माने / हसरत मोहानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मस्ती के फिर आ गये ज़माने
आबाद हुए शराबख़ाने

हर फूल चमन में ज़र-ब-कफ़<ref >स्वर्ण-मुकुट धारण किए हुए</ref> है
बाँटे हैं बहार ने ख़ज़ाने

सब हँस पड़े खिलखिला के ग़ुंचे
छेड़ा जो लतीफ़ा सबा<ref >breeze</ref> ने

सरसब्ज़<ref >हरा भरा</ref> हुआ निहाले-ग़म<ref >दुखी (पौधा)</ref> भी
पैदा वो असर किया हवा ने

रिन्दों<ref >शराबियों </ref> ने पिछाड़कर पिला दी
वाइज़<ref >उपदेशक</ref> के न चल सके बहाने

कर दूँगा मैं हर वली<ref >संत,धर्मात्मा,महात्मा
</ref> को मयख़्वार<ref >शराबी</ref>
तौफ़ीक़<ref >सामर्थ्य</ref> जो दी मुझे ख़ुदा ने

हमने तो निसार<ref >न्योछावर</ref> कर दिया दिल
अब जाने वो शोख़, या न जाने

बेग़ाना-ए-मय<ref >शराब से अपरिचित</ref> किया है मुझको
साक़ी की निगाहे -आश्ना<ref >परिचित दृष्टि</ref> ने

मसकन<ref >आवास</ref> है क़फ़स<ref >पिंजरा</ref> में बुलबुलों का
वीराँ<ref >सूने</ref> पड़े हैं आशियाने

अब काहे को आएँगे वो ‘हसरत’
आग़ाज़े-जुनूँ<ref >प्रेम के उन्माद की शुरुआत</ref> के फिर ज़माने

शब्दार्थ
<references/>