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महिला चेतना के अटूट स्वर / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

आज इस देश में दो शब्द सर्वाधिक प्रचलित और प्रसारित हैं, एक दलित-विमर्श, दूसरा स्त्री-विमर्श। ये दोनों ही दलित और स्त्री देश के सामाजिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास के क्षेत्र में अन्तिम छोर पर खड़े हैं। लेकिन इनमें अधिसंख्य स्त्रियाँ और उनमें भी दलित स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से बद से बदतर स्थितियों में जीने के लिए विवश हैं। देश के विकास में स्त्रियों को कितने प्रतिशत हिस्सेदारी मिली, इसका कोई आर्थिक सर्वेक्षण सामने नहीं आया है। शैक्षिक स्तर पर महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले बहुत पीछे हैं। स्त्रियाँ देश के विकास के हर स्तर पर अडिग खड़ी हैं। चाहे वह शिक्षा, व्यवसाय, सेना, पुलिस, उद्योग या कोई अन्य क्षेत्र हो, महिलाएँ पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढऩे के प्रयास में हैं, लेकिन फिर भी आज के इस विकसित माहौल में वे अपने को पुरुषों से कमतर, आधी-अधूरी, पीडि़त, दु:खित और हारी-हुई महसूस करती हैं। पुरुषवादी सोच उन्हें अनादरित, अपमानित, निरन्तर भावनात्मक दोहन और भौतिक रूप से प्रताड़ित करती रहती है। यह सब आज़ादी के 70 वर्ष के उपरान्त भी कल्पनातीत लगता है। आधी दुनियाँ का वर्चस्व जब पिघलने लगता है तब वह लावा बन जाती है। लेकिन हृदय से निकले आँसुओं की नदी से वह ठण्डा बना लेती है। तब वह सृजन के अपने दायित्व को पूरा करती है। इन्हीं विसंगतियों और जीवन की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों के बीच से पद्मजा की कविताएँ गुज़रती हैं और धार पाती हैं।

दलितोत्थान और दलित स्त्रियों के उद्धार के प्रति यह नहीं था कि बाबा साहब अम्बेडकर का ध्यान केन्द्रित न हुआ हो। बाबा साहब अम्बेडकर की दृष्टि में, आप सब जानते हैं, सभी स्त्रियाँ, मनुवादी सोच से पीड़ित थीं। उस समय महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिये गये थे। स्त्रियों को अपने अधिकारों की पुनप्र्राप्ति पुनर्प्राप्ति के लिए अम्बेडकर ने महात्मा ज्योति बा फुले का मार्ग अपनाया और स्त्री शिक्षा को जरूरी बताया। वे दलित स्त्री ही नहीं, सभी समाजों की स्त्री-शिक्षा के पक्षधर थे। वे मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के प्रति भी अनेक बार अपना विरोध दर्ज करा चुके थे। पद्मजा का स्त्री-लोक गाँव, शहर या कोई महानगरीय क्षेत्र विशेष नहीं है। बल्कि पूरी दुनिया की स्त्रियों की वे पक्षधर हैं। वे उनके दु:ख- दर्द, और तकलीफों में सहभागिता भी निभाती नजर आती हैं। कवि एक लड़की के स्वातन्त्र्य के लिए कहती है:-

वो लड़की थी और बात बात पर अकड़ती थी
वो लड़की थी और अपने हक के लिए लड़ती थी
वो लड़की थी और कहती थी उसे किसी से प्यार करना है
उसकी इच्छाओं ख्वाबों के ये फूल आज भी मेरे भीतर ताज़ा हैं
और लड़की भी ज़िंदा है क्या
मेरे अन्दर (वो लड़की)

यह आत्म मोह नहीं, आत्म-विश्वास की कविता है। पद्मजा ने अपनी कविता में उन संदर्भों को उठाया है जिनमें उन्होंने अपना जीवन जिया है। लेकिन यहाँ लड़की का प्रश्न महत्वपूर्ण है और दु:खद भी। यह लड़की का जीवन से पलायन नहीं है। वह अपने अधिकार के लिए लड़ेगी और प्रेम भी करेगी। वह कवि के मन में जि़न्दा है और वह उसे मरने नहीं देगी, कम से कम अपने होते।

प्रेम की एक बैतरणी होती है जिसका दूसरा तट नहीं होता’’
(दिनेश कुमार शुक्ल- ललमुनियाँ की दुनियाँ)

पद्मजा की कविता में लड़की के प्रेम का प्रभाव भी कुछ ऐसा ही है। लड़की के चले जाने से प्रेम का विघटन नहीं हो सकता। यही पद्मजा की कविता की विशेषता है। संग्रह की पहली लम्बी कविता है 'ज़िन्दगी’। कवयित्री का कहना है कि एक मनुष्य के लिए अपनी ज़िन्दगी’’ जीना सहज-सरल नहीं है। उसमें दु:ख है तो सुख भी, उसमें प्रेम-प्रतीति है तो राग-शून्यता, विरागता भी है। 'ज़िन्दगी को मैंने रोकर पकड़ा/ जिंदगी को मैंने हँस कर पकड़ा, ज़िन्दगी को मैंने कसकर पकड़ा/ ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत.... ज़िन्दगी ने यूं तो बहुत कुछ दिया/ उम्र दी अपना एक चेहरा दिया, बेचैनियाँ दी, रास्ते दिये, मंजि़लें दी...’’ जीवन जीने के लिए बहुत कुछ मिल भी जाता है और नहीं भी। मिलता रहे तो सफलता वर्ना जीवन की असफलता। इस सफलता-असफलता के बीच ही ज़िन्दगी’’ पूरी हो जाती है। काव्य संग्रह का नामकरण भी इन्हीं पंक्तियों में से चुना गया है जो संग्रह की सार्थकता को उजागर करता है।

पद्मजा शर्मा स्त्री-विमर्श की महत्वपूर्ण कवयित्री हैं जिन्होंने स्त्री-विमर्श पर खुलकर और प्रामाणिकता के साथ लिखा। पद्मजा शर्मा देश की दूसरी प्रख्यात कवयित्रियों के साथ कदम से कदम मिलाती नजर आती हैं। यथा अनामिका, कात्यायिनी, सविता सिंह, निर्मला गर्ग, सुजाता, हरप्रीत कौर आदि। पद्मजा की कविताएँ स्त्री को पुरुष के झूठे आदर्श, दमन, उत्पीडऩ और एक तरह के दुर्व्यवहार से आई कुण्ठा से सतर्क करती हैं, मुक्ति दिलाती हैं। वे पुरुष के छद्म प्रेम-व्यवहार को भी अपनी कविता में पुरजोर तरीके से लाती हैं और स्त्री को सतर्क-सावधान करती हैं। पद्मजा की कविताएँ अपनी तरह से कहीं-कहीं लाउड भी हो जाती हैं तथा पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध उग्र रुख अपनाती हैं जो मन-मस्तिष्क पर एक हल्का सा धक्का देने लगती हैं। पुरुष स्त्री को उसकी निजता और स्वातन्त्र्य से काट कर विद्यमान दासत्व से पृथक नहीं होने देता है, यहीं पद्मजा की कविता तिरस्कार का भाव-रूप धारण करती है। वह जानती है 'पतिव्रता’ एक सामन्ती शब्द है और पुरुष के बजाय स्त्री पर लादा जाता है। टीकी, बिन्दी और हिंगलू स्त्री क्यों लगाये, पुरुष क्यों नहीं? यदि इससे पति की वय में वृद्धि होती है तो फिर स्त्री ही व्रत क्यों रखे। पुरुष अपनी पत्नी की उम्र दराज की कामना के लिए व्रत क्यों नहीं रखते। पुरुष इस पर निरुत्तर हो जाता है। यही पद्मजा का प्रतिरोधी स्वर है। वह न तो रूढि़बद्धता को और न ही अंधविश्वास को स्वीकार कर पाती है-

एक बोझ लिये सोती हूँ
एक बोझ लिये जगती हूँ
००० ००० ०००
सदियों से ढो रही हूँ यह बोझ
अब तो उतरे ये बोझ
कि मैं भी खुलकर बोलूँ
कि मैं भी लिखूँ खुलकर
कि मैं भी गाऊँ
मैं भी उड़ सकूं कल्पनाओं के
अन्तहीन आकाश में।”
(अपना जीवन)
इसी तरह -
मैं हँसती हूँ तो कहता है
ज्य़ादा मत हँस रोना पड़ेगा,
मैं सोती हूँ तो कहता है सो मत
बहुत कुछ खोना पड़ेगा
मैं चलती हूँ तो कहता है
रूक, खड़े होना पड़ेगा
मैंने यह सच अब जाना
कि उसका तो काम ही है टोकना
और मेरा न रुकना
(टोकना)

इन कविताओं के बरअक्स प्रख्यात कवि दिनेश कुमार शुक्ल के कविता संग्रह 'आखर अरथ’ से एक कविता उद्धरित करना चाहूँगा- उन्होंने स्त्री की महत्ता को कम करके नहीं आँका है। उनकी कविता में स्त्रियों के प्रति श्रद्धा, प्रेम और कृतज्ञता का भाव भी प्रकट हुआ है।

'कपोताक्षी/ पद्मा थी/ खंजन-नयन/ फाख्ता-सी आँखों वाली कौन थी तुम’
इसके विपरीत उन्होंने स्त्री के साहस और शौर्य का भी अपनी कविता में बखूबी चित्रण किया है।
'स्त्रियों की आँखों और खुले बालों से/ डरते हैं धर्म और साम्राज्य’
पद्मजा अपनी कविता में कहती हैं-

एक औरत जब रोती है/ तो एक वही कारण नहीं होता जो दिखता है/ बल्कि दूसरा कारण भी होता है/ जो दिखने में नहीं आता है... औरत जानती है/ अपने आँसू की कहानी/ हर आँसू का कारण/ पर वह कहती नहीं/ चुपचाप बहती है और कभी-कभी इस बहाव को लिखती है/ असल में वो जैसी होती है वैसी अपने लेखन में उतरती है।” (औरत जानती है)
इसी तरह की कचोटने वाली एक और कविता:

मैं कह वो करो/ मैं चाहूँ तब तक जीओ/ मैं चाहूँ तो मरो/ मैं हूँ मुझसे डरो/ बोलो मत/ सिर्फ सुनो/ देखो मत/ सिर्फ चलो/ मंजि़ल मैं/ रास्ता मैं/ पांव तुम्हारे पर सोच मेरी/ तुम कहे पर अमल करो। मरो पर ठहरो/ मैं बताता हूँ किस तरह मरो’’ (अब मरो)

अर्थात् स्त्री को मरने की भी आज़ादी नहीं है। उसे कैसे मरना है। यह भी पति ही बतायेगा। यही स्त्री दौर्बल्य की विडम्बना है जिसे पुरुष अपने शारीरिक बल से स्त्री को समझाना चाहता है।

लेकिन वह नहीं जानता कि स्त्री एक विकराल आग भी है-

मैं आग हूँ/ मैं तुम्हारी लगाई हुई आग हूँ/ पर अब तुम्हारे बुझाये बुझुंगी नहीं। तुम्हारे कहने से पानी नहीं हो जाऊँगी/ आग हूँ तो आग ही रहूँगी।”

पद्मजा की एक कविता है आशावादिता लिये हुए जिसमें दुविधा को जोड़ दिया गया है- पर वह जीने का आधार देती है-
जब मैं कहती हूँ कि मैं निराश हूँ/ तब मैं निराशा के पास कम/ आशा के साथ ज्य़ादा होती हूँ। जब मैं कहती हूँ कि मैं खुश हूँ/ तो असल में मैं खुश दिखती हूँ/ होती नहीं हूँ/ जबकि खुश रहना चाहती हूँ।” यह दुविधा है, रही है, रहेगी।

आज स्त्री विमर्श और स्त्री स्वातन्त्र्य की बहुत बातें होती हैं पर आज भी स्त्रियाँ बेख़ौफ़ कहीं आ जा नहीं सकतीं। प्रतिदिन अखबार ऐसी ही सुर्खियों में भरे रहते हैं। ज्यों ज्यों दवा की मर्ज़ बढ़ता गया। दवा की नहीं, सख्ती की आवश्यकता है। पद्मजा ने इसी पर एक बेहतरीन कविता लिखी है। वह बेटी के पास होस्टल में मिलने जाती है। लौटने में देर हो जाती है। घोर अंधेरे में माँ को लौटना है। बेटी अपनी बहादुरी तो दिखाती है पर डरती भी है। वह अपने मित्र को बुला कर अपनी माँ को बस स्टॉप पर छोड़कर आने की योजना बनाती है। माँ का डर तब भी बरकरार रहता है। पद्मजा कहती है-

मुझे उस दिन का इन्तज़ार है/ जब अकेली माँ की चिन्ता बेटी को/ बेटी की चिन्ता माँ को नहीं सताया करेगी।”
इस काव्य-संग्रह में स्त्री-विमर्श की अधिसंख्य कविताएँ हैं लेकिन यह एक अच्छी बात है कि पद्मजा ने एक विषय में भी विविधता बनाए रखी है और कविताओं में कहीं भी एकरसता (Monotony) दिखाई नहीं देती है। कहीं भी किन्हीं दो कविताओं में विषय-साम्य नहीं आने दिया है।

वो तुलना करता रहा है मेरी इससे उससे
वो मुझमें देखना चाहता था माधुरी दीक्षित
पर जब मैं बनने लगती माधुरी दीक्षित
तो वो मुझमें देखना चाहता था किरण बेदी’’
(मैं, मैं ही रहूँगी)

एक स्त्री अपने पति के कहे क्या-क्या बनती है। एक रूप उतारो-दूसरा धरो। यह तो अच्छा हुआ जो उसने विश्वविख्यात महिला मुक्केबाज एम.सी. मैरीकॉम बनाना नहीं चाहा। और यदि पत्नी कहे कि उसे भी अलीबाबा चाहिये, उसका खज़ाना चाहिये या वह कहे कि मुझे स्पाइडर मैन चाहिये दीवारों को कूदता फलांगता तो शायद पुरुष का हुलिया ही उतर जाये। वह कहे कि उसे देवानंद पसंद है तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाय। यह पुरुषवादी वर्चस्व पर हथौड़ा चलाने जैसा है। मैं कहूँगा- बधाई पद्मजा जी।

इस संग्रह की स्त्री-विमर्श की कविताओं से परे हट कर कुछ दूसरी बेहतरीन कविताएँ भी हैं जैसे 'मेहनतरानियाँ’ जिसमें सफाई कर्मियों की श्रम-शीलता की प्रशंसा की गई है। जो श्रमजीवियों को सम्मान दिलाती है। इसी श्रेणी में ढाबे वाला श्याम, अपंग मानसिकता का व्यक्ति 'पुरुष’। कुछ दूसरी अच्छी कविताएँ भी हैं जिनमें 'जांच अभी जारी है’, 'सारंगी- वादक सुल्तान खान का दर्द’। पद्म-भूषण सम्मान प्राप्त सारंगी वादक माननीय सुलतान खान साहब का बीमारी की हालत में भी सारंगी बजाने का मोह नहीं छूटता है-

बहुत दौड़ा पर लम्बी दौड़ अभी बाकी है
मेरी सारंगी और मन के तार अभी टूटे नहीं हैं
लोगों का मन अभी भरा नहीं’’
(सारंगी-वादक सुल्तान खान का दर्द)

... और एक महत्वपूर्ण रचनाकार के बारे में थोड़ा लेकिन महत्वपूर्ण होगा कहना-

हसन जमाल हिन्दी-उर्दू की 'शेष’ पत्रिका के प्रतिमान सम्पादक हैं। यशस्वी भी। वे एक अच्छे पत्रकार के साथ एक प्रख्यात कथाकार भी हैं। विशिष्ट। विशिष्टता इस अर्थ में कि जो पाठक उनकी कहानियों को पढ़ता है, सिहर जाता है। सोच में डूब जाता है और वह कहानी से आगे की कहानी तक दौड़ लगाने लगता है।

अन्त में मैं अपनी बात ऋतुराज की कविता से समाप्त करता हूँ-

'वह फूल की तरह चुपचाप झरती है, सताई जाती है पर प्रतिवाद नहीं करती है, फूलवाली फूल की तरह मुझसे कहती है ले चलो मुझे जहाँ होऊँगी वहाँ खिलखिलाऊँगी, फूल की तरह नष्ट हो जाऊँगी।”
(स्त्रीबग्ग से)

गुरुवार 22 जून, 2016 रेवतीरमण शर्मा
49, मधुबन कॉलोनी