मालियों पर कब किसी ने लिखे लेख... / मुकेश निर्विकार
मंडराते हैं जिनके सौंदर्य पर भ्रमरगण
और गाते हैं अपना षट्रराग
बनते है जो आभूषण सुंदरियों के
प्रेमीगण करते जिनसे प्रेमालाप
चिर-प्रेरक है जो कविगण के सौन्दर्यशास्त्र के –
वे मनमोहक फूल;
पीते है जिसे हम अपनी स्वांस में हरपल-
वह संजीवनी ओषजन;
दहकती है जो चूल्हे की आग में निरंतर-
वह अनलवाह लकड़ी;
तृप्त करते है जो रसना और उदर को सदा-
वे सुस्वादु फल;
बदन चीरकर जिनसे खींचे गये है खांचे
दरवाजे और चौखटो के-
वे दाघिच शहतीर;
झुलसती धूप में जो सहर्ष बन जाते है चंदोबे
पथिकों के सिर पर और मिलती है जिनके तले
रहिजन को स्वर्गिक शीतलता-
वो स्नेहिल छांव;
लिख रहा हूँ इस पल मैं जिस पर अपनी यह कविता-
वह चिरग्राही कागज-
ये सभी आखिर
जमीन के नीचे धंसी
सीलन और दुर्गन्ध झेलती
जड़ों के ही तो उत्पाद है
मगर,
कविगण ने सिर्फ प्रफुल्लित फूल देखे
नहीं देखि कभी जड़ों की विवशताएँ
फूलों के बखान से अटे पड़े है तमाम काव्यशास्त्र
मगर, अफसोस !
जड़ों का कहीं भी उनमें जिक्र नहीं है।
लिखी गयी अनगिनत बार राजकुमारों की उधान-चारिकाएँ
मगर मालियों पर कब किसी ने लिखे लेखे
सड़ गया जो पेड़ की जड़ों में चुपचाप
फूल पत्तियों का निवाला बनकर
फसाने में उस खाद का कहीं जिक्र नहीं है!
कविगण रुको! ठहरों जरा! देखो इधर इन जड़ों की ओर भी!
जड़ें जब छोड़ती है साथ तो
विलुप्त हो जाता है सारा सौंदर्य चमन का
इसलिए फूलों का मंडन छोड़ लिखो
फिर से नयी कविता
सिर्फ फूलो के सौंदर्य को नहीं
सराहो जड़ो की मुक साधना को भी
माली की लगन और अध्यवसाय को भी
खाद के आत्मोत्सर्ग को भी
आखिर इस चमन में इन्हीं सब का तो
सामूहिक
संकल्प खिल रहा है|