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मिट गये देश के जो सृजन के लिए / डी. एम. मिश्र

मिट गये देश के जो सृजन के लिए
रह गये शेष हैं वो स्मरण के लिए।

काश, पुरखों के अरमान हम जानते
ख़्वाब उनके थे क्या इस वतन के लिए।

फूल क्या जानते भूमि से पूछिये
ख़ून कितना बहा इस चमन के लिए।

आपसी रंजिशें, साजिशें बढ़ गयीं
खोखले हो गये लोग धन के लिए।

लेाग स्वाधीन हैं या कि स्वच्छंद हैं
सभ्यता रो रही आचरण के लिए।

कौन दिल से किसे मानने कब चला
सब दिखावा है लाभार्जन के लिए।

सिर्फ आदर्श जलसों तलक ही न हों
ज़िंदगी में वो हों अनुकरण के लिए।