मुक्तक 2 / अमन मुसाफ़िर
मुक्तक -1
रूप की चाँदनी से सिन्धु ज्वार भरता है
तुम्हें पता ही नहीं कौन तुमपे मरता है
सामने दर्पणों के सबको सँवरते देखा
तेरे चेहरे को देख आईना सँवरता है
मुक्तक - 2
चाँद के साथ टहलता था स्वप्न गढ़ता था
अपनी तन्हाई के संग छत पे जब भी चढ़ता था
दिन भी कॉलेज के क्या ख़ूब बताऊँ कैसे
मैं चाँदनी में तेरे ख़त डुबो के पढ़ता था
मुक्तक - 3
भरी महफ़िल में जब भी याद उसकी आती है
रोकूँ कितना भी ख़ुद को आँख भर ही जाती है
हाल-ए-दिल पूछ लो इक बार अब सनम मुझसे
रात की चाँदनी भी मुझको अब जलाती है
मुक्तक - 4
छोड़कर काम दबे पाँव चले आना तुम
जब न मिल पाए कहीं छाँव चले आना तुम
सारी नाराज़गी बाबा की उतर जाएगी
जब भी थक जाओ तो फिर गाँव चले आना तुम
मुक्तक -5
भटक रहा हूँ मैं मुझको मेरा पता देना
खिजाओं को भी बहारों का घर बता देना
प्यास का एक मरुस्थल है मेरे अधरों पर
तुम नदी बन के मेरी प्यास को बुझा देना