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मुख न निहारो / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

मुख न निहारो इस दर्पण में!

मुझे गिराया है ऊचें से
तेज़ हवा ने बहुत जोर से,
चूर-चूर तो नहीं हुआ पर
दरक गया मैं कोर-कोर से,

रहने दो अपशकुन मत करो
सुबह-सुबह इस मधुरिम क्षण में!
मुख न निहारो इस दर्पण में!

अंचल अपना करो न मैला
मुझ पर धूल चढ़ी रहने दो,
एक और झोंका आने तक
करुणा में यों-बहने दो,

रूप तुम्हारा रख न सका है
मुझको अपने संरक्षण में!
मुख न निहारो इस दर्पण में!

यदि हाथों ने उठा लिया है
तो मुझको उस ओर डाल दो,
जहाँ न होकर निकले कोई
उस कोने में आज ढाल दो,

रूपसि! अब मैं चुभ सकता हूँ
किसी समय भी, किसी चरण में!
मुख न निहारो इस दर्पण में!