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मुख - 2 / प्रेमघन
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प्रभात जम्हात उठी अँगिराय,
उठाय दोऊ कर पुंज उदोति।
मिली जुग पंचन की अँगुरी भुज,
मध्य उगी मुख की जगि जोति॥
रसै बरसै रमनी घन प्रेम,
सुधा सुखमा की बनी मनो सोति।
किधौं जनु दामिनि मंडल ह्वै,
ससि घेरत कैसी सुसोभित होति॥