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मुझको भी कोई पढ़े कल क्या पता / डी. एम. मिश्र

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मुझको भी कोई पढ़े कल क्या पता
मुझको भी कोई सुने कल क्या पता

इसलिए रहता ग़ज़ल के गाँव में
जो है बोया वो उगे कल क्या पता

ख़्वाब तो महलों से भी ऊँचे मेरे
झोंपड़ी सच बोल दे कल क्या पता

इसलिए पिड़वर से आँगन लीपते
हम न हों ,खुशबू रहे कल क्या पता

आज ही शिकवे - गिले सब दूर हों
फिर न ये अवसर मिले कल क्या पता

आइये खुल्ले में रहना सीख लें
मौत आये ढूँढने कल क्या पता

फ़ातिहा पढ़ने वो आयेगा ज़रूर
दर्द मेरा बाँट ले कल क्या पता

पर, चिता क्या क्या जलायेगी मेरा
शेर ये ज़िंदा रहे कल क्या पता