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मेरे दिमाग़ का एक डर मेरी तलाश में है / देवेन्द्र आर्य
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मेरे दिमाग़ का एक डर मेरी तलाश में है ।
बहुत दिनों से मेरा घर मेरी तलाश में है ।
मैं जिसकी आँख का पानी रहा वही मुझको,
नज़र से अपनी गिराकर मेरी तलाश में है ।
मैं भाग जाऊँ कहाँ छोड़-छाड़ के दुनिया,
कि अब तो फ़ोन प दफ़्तर मेरी तलाश में है ।
मैं किस के नाम प रोऊँ मैं किस को दूँ इल्ज़ाम,
मेरे ही हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है ।
न नींद है न कोई ख़्वाब आरज़ू न कोई थकन
तो क्यों ये जिस्म का बिस्तर मेरी तलाश में है ।
बदल गया है ज़माना बदल गई तस्वीर,
मेरे लठैत का जांगर मेरी तलाश में है ।
मैं नींद-नींद छिपा फिरता ख़्वाब-ख़्वाब मगर,
वो एक ख़बर-सा बराबर मेरी तलाश में है ।
जिसे ’किताब के बाहर’ तलाश मैंने किया,
वही हयात के बाहर मेरी तलाश में है ।