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मैंने वहशत में तेरा नाम सरे-आम पढ़ा / अजय अज्ञात

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मैंने वहशत में तेरा नाम सरे-आम पढ़ा
अपने हाथों की लकीरों में तेरा नाम पढ़ा

मैंने हर साँस‚ हर इक लम्हा‚ तेरा नाम पढ़ा
कभी अल्लाह‚ कभी ईसा‚ कभी राम पढ़ा

तेरे होठों पे ज़माने ने जो डाले ताले
मैंने आँखों के इशारों को सरे-शाम पढ़ा

लाख इल्ज़ाम लगाती रही दुनिया लेकिन
प्यार का कलमा रह-ए-इश्क में हर ग़ाम पढ़ा

अपने बच्चों को खिलौना भी न इक दे पाया
मैंने अखबारों में बढ़ता हुआ जब दाम पढ़ा