भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं यक़ीन-ए-गुमाँ से निकला हूँ / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
Kavita Kosh से
मैं यक़ीन- ए- गुमाँ से निकला हूँ
अपने ही दरमियाँ से निकला हूँ
मेरा किरदार बोलता था बहुत
इसलिए दास्ताँ से निकला हूँ
वहशतें मुझ में रक़्स करती हैं
किसके गिर्दाब- ए- जाँ से निकला हूँ
किसके दुख- दर्द का हूँ मैं हासिल
किसके आह- ओ- फ़ुग़ाँ से निकला हूँ
लगता रहता हूँ मैं निशानों पर
जाने किस की कमाँ से निकला हूँ
मुझको तहरीर कर रहे हैं लोग
लफ़्ज़ हूँ मैं ज़बाँ से निकला हूँ