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यह कौन विरहणी आती / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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यह कौन विरहणी आती !
केशों को कुछ छितराती ।
वह म्लान नयन दर्शाती ।।
लो आती वह निशि-भोर ।
देती है मुझे झिंझोर ।।
वह चौंका मुझको जाती ।
प्रातः सपनों में आती।
वह मदिर मधुर शयनों में,
कैसी मिठास भर जाती ।।
वह यहाँ कुसुम-कानन में,
है सौंप वासना जाती ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रेम' के अन्तर्गत 153 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)