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यह लुनाई / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
दूर सागर दूर साँभर झील परवत सुलेमान
दूर बेहद दूर डांडी यात्रा की याद
खरी-खारी बात कहना नामुनासिब
बल्कि है अपराध इस मीठे समय में
तब कहाँ से ये लुनाई
इस कदर आई चने की कोपलों पर?
आँख में ही सूख कर जो रह गये
उन आँसुओं का यह नमक
आत्मा की रगों से छन कर
लहू में रंग भरता
नमक सीधे हाड़ से टपका पसीना बन
और धरती की धमनियों में वही बहता
चला आया चने के खेत तक
कच्ची गिरस्ती की दिवारों से झरा
बन कर यही नोना
आँधियों की धूल में भी स्वाद भरता
और उड़ता चला आया है नमक इस खेत तक
यह चने का खेत
अभयारण्य धरती के नमक का
सुप्ति-जाग्रति-स्वप्न के भी पार से
आ रही है उमड़ती अभिधा
नमक के स्वाद जैसी
सरल सीधी तीक्ष्ण!