रतजगा / दिनेश कुमार शुक्ल
जुगुनू जैसी-बुझती
वह रातों की रात
रात में डूबे-डूबे
हम निकले उस रात फाँद कर दीवारों को,
देह ही नहीं
मन की भी सीमा के बाहर निकल पड़े हम
फाँदी हमने बाड़ कटीले तारों वाली
छुपी हुई थी जो मेंहदी की हरियाली में
हमने घुस कर नंदन वन में गेहूँ बोया
हमने घुस कर फूल चुराये पारिजात के
अक्षयवट की डालों में हम झूला झूले
वह मायावी रात सुलगते तारों वाली,
हमने देखा
सरपट-सरपट चला जा रहा था अँधियारा
उसके काँधे पर बैठा था दुख सोने का मुकुट लगाये
हमने राजा का मुख देखा
रूप बदलता था छल प्रतिपल,
हमने राजा का सुख देखा
सबका दुख ही राजा का सुख,
हमने देखा
सत्ता के पंजों पर बैठा बाज
नोंचता हुआ समय को
बँूद-बूँद कर टपक रही थी लड़ती घायल रात
और हम भीग रहे थे,
दूर क्षितिज के परकोटे पर
निहुरे-निहुरे भाग रही थीं
काली चादर ओढ़े डरती हुई दिशाएँ
हम निकले उस रात लाँघ कर देश-काल को
हम निकले उस रात फाड़ कर चट्टानों को
निकल पड़े उस रात हमारे साथ
हमारे सारे साथी
पीछे-पीछे चले आ रहे थे
उड़ते हत्यारे छर्रे
दौड़ चले हम सपनों की पक्की जमीन पर
पक्की गच पर उछल-उछल कर कंचों जैसी
आँखों की पुतलियाँ भागतीं साथ हमारे
उन स्वायत अपरिमित आँखों में कितने संसार भरे थे!
साथ हमारे दौड़ रहे थे
बच्चों-से ब्रम्हाण्ड हजारों!
हमने देखा
आसमान का औंधा हुआ कटोरा
जिसमें दूध भरा था
लुढ़का कर कोई बिल्ली छुप गई चाँद में
हमने देखा
कहीं नहीं था समय, समय तो स्वयं हमी थे
कहीं नहीं थी रात-हमारी छाया थी वह
गूँज रही थी चीख भीड़ के बहरेपन में
जब खुद की हो तभी, क्या तभी चुभती पीड़ा?
वाणी संज्ञाशून्य क्रियाएँ सभी अकर्मक,
शब्दों को हलन्त बन कर छूती थी पीड़ा-
अब चीखें ही पैना करती थीं शब्दों को
भार उठाये सपनों का पलकें भारी थीं
हमें नजर में भर कर आँखें उतर रही थीं
अन्तहीन सीढ़ियाँ अतल के अगम-घाट की-
मेरे सोये शैशव को गोदी में भर कर
माँ थम-थम कर ज्यों छत से उतरा करती थीं
वह झूला वह नींद सुबह की मीठी-मीठी
आत्या में जीवन्त ओस की नीली झीले
महानिशा की आँखों में सोये-सोये हम
तैर रहे थे निडर
प्रलय के जल-प्लावन में
रातों की वह रात अजब था ताना-बाना
हमने देखा
उस आभासी कुहरे में भी
सत्ता लूट रही थी जीवन के सपनों को,
हमने देखा सब कुछ चरते धन-पशुओं को
गेहूँ के पहाड़ के नीचे हमने देखा
हप-हप् करती भूख खा रही थी लोगों को
आँख मार कर हत्या पर हँसते धर्मों को हमने देखा
हमने देखी कायनात डूबती नाव-सी,
हमने माँ को रोते देखा
यहाँ सत्य में या माया में भेद कहाँ था?
आतुर था वह कठिन सत्य का पहर
नचाता हुआ चाक-सा धरती को
जाने क्या गढ़ना चाह रहा था-
एक असंभव किन्तु अमर आकार?
अंसभव किन्तु अनश्वर रंग?
असंभव अनुभव, भाषा, दृष्टिअनश्वर सृष्टि?
अंधकार की चट्टानों पर रेत-रेत कर
सान चढ़ाती थी कुतर्क की तलवारों पर मृत्यु
लगाकर घात छुपी थी वीरासन में
खिंची धनुष की प्रत्यंचा-सा
काल झपटने के पहले झनझना रहा था
सहसा इक पदचाप गूँजने लगी गगन में
चला आ रहा था कोई चैता में डूबा
बोझा लादे नई फसल का,
अंधकार में भी उसके प्रतिविम्ब झलकते
इक जुलूस था प्रतिविम्बों का
चली आ रही थी अनन्त की लहर
चला आ रहा था विशाल जलयान
तोड़ता हिम-शैलों को
सघन रात के तट पर आ हलकोर
तोड़ती सम्मोहन को
उफन रहे पानी में टूटा धनुष पड़ा था
महाव्याल भुर्ता-भुर्ता था चट्टानों पर
टूट चुकी तलवार, मृत्यु भी मरी पड़ी थी
किरनों की आहट पाते ही पहला पक्षी
जगा, उड़ चला अरुणाभा में उतराता-सा