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रब को दिमाग नहीं / देवेन्द्र आर्य

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अपनी इस धरती पर वर्जित फलवाला कोई बाग़ नहीं,
इसीलिए हमपर लग पाया जन्नत वाला दाग़ नहीं ।

अब देवी के थान पे भी जलता कोई चिराग नहीं,
बिजली के फूलों की माला, ख़ुशबू नहीं, पराग नहीं ।

थोड़ी देर ठहर कर कुदरत से भी दो बातें कर लो,
यार तरक़्क़ी का मतलब है केवल भागम-भाग नहीं ।

कुछ रंगों का, कुछ अंगों का, कीचड़ सनी उमंगों का,
फाग नहीं तो राग नहीं और राग नहीं तो फाग नहीं ।

कालर,जेब ,कमर ,गर्दन ,कफ़,चारों तरफ आस्तीनें,
नाग-पंचमी के अवसर पर भी अब दिखते नाग नहीं ।

बिना घरेलू हुए नहीं मिलता है सुख सामानों का,
चौके का भोजन ही क्या जब चोखा, चटनी, साग नहीं ।

मौसम को थोड़ा-सा मौसमियाने तो दो, फिर देखो,
कंठी थोड़े पहनी है, ले रक्खा है बैराग नहीं ।

माता-पिता के भीतर कितना राग बचा है यह सोचो,
कह देना आसान बहुत है बच्चों में अनुराग नहीं ।

सदियों बाद फ़ैसला होगा बसी हो गए कर्मों का,
सुन के तो ये ही लगता है रब को कोई दिमाग नहीं ।