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रस: हास्य रस आदि आठ अन्य रसों का वर्णन

कहि सिंगार अब कहत हौं आठो रस सब ल्याइ।
जिनते पूरन होत हैं नौ रस गिनती आइ॥1053॥
ज्यों थाई सब रसन की न्यारी न्यारी होति।
त्यौं आलंबन हूँ सदा भिन्न भिन्न उद्दोति॥1054॥
आलंबन अंकित विषै उद्दीपन ह्वै जात।
बहुरि होत अनुभाव हूँ भिन्न भिन्न अविदात॥1055॥
सातुक तमचर भाव को सब ने अनुभव जानु।
मन बिबचारिन को सदा सहकारी पहिचानु॥1056॥

हास्य-रस
लक्षण

परिपोषक जो हाँस्य को सोइ हास-रस जानि।
बिकृत बच क्रम संग तें नित उपजत हैं आनि॥1057॥
मुख अरुनत... परसन्नता ते अनुभाव बिसेखि।
ब्रह्म देव तेहि कहत कवि बरन सेत अवरेखि॥1058॥

हास्य के स्थायी भाव का उदाहरण

बात कहत पिय भूलि फिरि लीनो बरन सँभारि।
प्रान बसी सुनि कै कछु मन मैं हँसी बिचारि॥1059॥

त्रिभेद

दसन खुलत नहि मंद मैं धुनि मद्धिम मैं होइ।
बहु हँसिबो अति हाँस मैं हाँस तीनि बिधि जोइ॥1060॥

मंद-हास-उदाहरण

ग्वालिनि भेल बनाइ हरि मिले तियन में आनि।
गरुये मन तव चित बसोहरुवे हँसि पहिचानि॥1061॥

मद्धिम हास्य-उदाहरण

भूलि चले जब पीत पट तब सुझाइ ढिग लाल।
हमैं दयौ यह बचन कहि कल धुनि सो हँसि बाल॥1062॥

हास्य-उदाहरण

जो मेरे हित अचर धर ल्याये काजर प्रात।
तो मुख लावन की लला मेरो मन अकुलात॥1063॥
खाइ चुनौ तीको गयो पानन मैं जब स्याम।
देखत हो तब हँसि परो खिलखिलाय कै बाम॥1064॥

करुण-रस
लक्षण

परिपोषक जो सोक को करुना रस सो होइ।
इष्ट नास बिपतादि सब ये बिभाव जिय जोइ॥1065॥
भ्रमन तपन बिलपन स्वसन जानि लेहु अनुभाव।
जम सो देवता कहत हैं बरन कपोत सुभाव॥1066॥

करुण-रस के स्थायी भाव शोक का उदाहरण

बिनु तुव दल सनमुख भये अरि नारी बिलखाइ।
करुन बीज उर में बयो आगे ही ते ल्याइ॥1067॥

करुण-रस के स्थायी भाव करुना का उदाहरण

तूँ अरि सोकन तिय लई साँस अरनि दृग वार।
कहुँ जारत बन को फिरै बोरत कहूँ पहार॥1068॥
बिलखि कहति मंदोदरी गहि दसमुख को गात।
बीस करन हूँ राख तुम सुनत न मेरी बात॥1069॥
सौंपि जागिबो आपुनो मो नैननि के साथ।
लै सब इनको नींद की सुख सोये तुम नाथ॥1070॥

रौद्र-रस
लक्षण

परिपोषक जो कोप कै वहै रौद्र रख जानु।
दुसह बैर बैरी लखन यो बिभाव पहिचानु॥1071॥
कंप धरम आवेग धृत वर्म अंसु अनिभाउ।
रुद्र देवता जानिए बरन अरुण चिता लाउ॥1072॥

रौद्र-रस के स्थायी भाव कोप का उदाहरण

पिय ओुन सुनि जो जगेउ रिस अंकुर मन आइ।
सो बिनु बढ़ि निकसे अधर तिय मुखते न लखाइ॥1073॥

रौद्र-रस का उदाहरण

निकसत जावक भाल पर पावक सी ह्वै बाल।
अपने उर ते तोरि के पीय हिय दीन्हों माल॥1074॥
मुकतन सेलन पंथ ही गहि गहि क्रोधन सथ्थ।
मांेजु बालुका हाथ तें करत जात दसमथ्थ॥1075॥

वीर-रस
लक्षण

परिपोषक उत्साह को सोइ बीररस लेखु।
पूरब की असमर्थता सो विभाव अविरेखु॥1076॥
उग्रताइ परसन्नता पुलकादिक अनुभाव।
जानु देवता इंद्र को गौर बरन तिहि गाव॥1077॥

वीर-रस के स्थायी भाव उत्साह का उदाहरण

सत्य दयारत दान को जब अवसर नियराइ।
उदय करत हैदर हियौ हरखहि आगे आइ॥1078॥

वीर-रस का उदाहरण
चतुर्विधि

बीर चारि जग प्रकट भे सत्त दयारत दान।
धरम तनय सिव राम बल इत्यादिक ते जान॥1079॥
प्रगटे चारो बीर जे चारि पुरुष को पाइ।
सो चारो पूरन भये हैदरनतन मैं आइ॥1080॥

सत्यवीर का उदाहरण

तिनि सर नाये पगन पर जिन जिय धरो मरोर।
करयौ नबी ने जगत सब एक सत्य कै जोर॥1081॥
हैदर ते जीतै न कोउ यह जानत सब कोइ।
धरमहि ते जय होत है पापहि ते छय होइ॥1082॥
भज्यौ बहत्तर वार जो जुद्ध माहि मुख मोरि।
हैदर ने मुख बोलि हित दियो राज तिहि छोरि॥1083॥

दयाबीर का उदाहरण

घेरि लये सुलमान जब गरजि सिंह चहुँ ओरि।
साहनसाह उमाह सो लिय बचाइ बरजोरि॥1084॥

रणवीर का उदाहरण

यों सुभटन संग लरत है हैदर धारि उछाह।
ज्यौं नारिन संग आइ कै होरी खेलत नाह॥1085॥
जेहि खैबर ने जाइ कै आये सब मुख मोरि।
हैदर ने तिहि द्वार को बिहसत डार्îौ तोरि॥1086॥
निकसन को अरि अंग ते हाथ रावरे पाइ।
नेजा की पोरी रही सबै होड़ सी लाइ॥1087॥
तुव दल चढ़ काँपत जगत सत्रु अत्र गिरि जात।
टूटत अगम अखंड गढ़ लखी न किन यह बात॥1088॥

दानवीर का उदाहरण

तिन हैदर के दान को को करि सकै सुमार।
जो परहिन चित चाव सो बिके बहत्तरि बार॥1089॥

भयानक-रस
लक्षण

परिपोषक भय भाव को सोइ भयानक जानि।
बसत घोर धुनि लहि सदा होत है आनि॥1090॥
मुख सूान हिय धकधकी कम्पादिक अनुभाव।
स्याम बरन अरु देवता काल कहन कबिराव॥1091॥

भयानक-रस के स्थायी भाव भय का उदाहरण

रावन के हैं दस बदन ओर बीस हैं बाँह।
यह सुनि कै हिय भै कछू भयो राम दल माँह॥1092॥

भयानक-रस का उदाहरण

भभरि राम दल के भये बदन पीत ज्यौं धूप।
जब रावन को औचिका लख्यौ डरावन रूप॥1093॥

वीभत्स-रस
रस-लक्षण

परिपोषक घिन को सोई रस बीभत्स गनाइ।
घिन मैं बसत बिभाव को नित उपजत हैं आइ॥1094॥
बिरुचि नींद अरु थूकिबो मुख फेरिन अनुभाव।
महाकाल है देवता बरन नील तेहि गाव॥1095॥

वीभत्स-रस के स्थायी भाव घृणा का उदाहरण

हरि सुमिरत हीं राधिका रंग रूप गुन आनि।
सतभामा कछु मोरि मुख रही ग्वारिनी जानि॥1096॥

बीभत्स-रस का उदाहरण

परधन रति सो आसु चलि नैु न उर लपटाइ।
स्याम निहोरत है तिया नाक सिकोरति जाइ॥1097॥
कहुँ आमिष कहुँ हाड़ अरु कहुँ चाम दरसात।
तेहि सदना घर कीन बिधि तुम्है बन्यौ हरि जात॥1098॥

अद्भुत-रस
लक्षण

परिपोषक आश्चर्य को अद्भुत रस वहि जानि।
नई बात कछु देखि सुनि उपजत है नित आनि॥1099॥
बिनु बूझे जो चकि रहै सोइ जानि अनुभाव।
पीत बरन अरु देवता ब्रह्म चित्त मैं ल्याव॥1100॥

अद्भुत रस के स्थायी भाव आश्चर्य का उदाहरण

पूँछि जारि कै पवन सुत दी सब लंक जराइ।
हिये राछसन के दर्यौ अचरिज सो धा लाइ॥1101॥
ल्याइ सँजीवनि मूरि जब ज्यायो लछमन फेरि।
सब राक्षस चकृत भए यह अचिरिज को हेरि॥1102॥
जो दल चढ़ि लंका गयो आयो रावन मारि।
सो लरि कै सरि को करै द्वै लरिकन सो हारि॥1103॥
प्रगट देखियत जो सकल जग के पोषनहार।
ठाढ़े हाथि पसार कै माँगत बलि के द्वार॥1104॥

शान्त-रस
लक्षण

परिपोषक निरवेद को सांत कहत है सोइ।
उपजनि बाकी गुरु कृपा देव कृपा तें होइ॥1105॥
छमा सत्त सूर पूजिबो जोगादिक अनुभाव।
श्री नारायण देवता चन्द बरन तेहि गाव॥1106॥

शांत रस के स्थायी भाव निर्वेद का लक्षण

निजानन्द गुनगान लहि जग ते होइ उदास।
सो निरबेद जो सांत को थाई है परकास॥1107॥

शान्त के स्थायी भाव-निर्वेद का उदाहरण

जग आन्यौ जेहि भजन को अरु फिरि वासो काम।
रे मन सुमिरत है नहीं एको दिन तेहि नाम॥1108॥
खिन हरि ढूँढ़त आप मैं खिन ढूँढ़त असमान।
घर को भयो न घाट को ज्यौं धोबी को स्वान॥1109॥
रे मन हाथ न लगत कछु जगमें लोभ लगाइ।
ज्यौं ज्यौं फटकै खोखरो त्यौं त्यौं उड़ि उड़ि जाइ॥1110॥
रे मन अलि सँग भ्रमत कत खोवत द्यौस निकाम।
चरन कमल बिनु राम कै पै हैं नहिं विश्राम॥1111॥

शान्त रस का उदाहरण

होत न कछु न्यारो भये अरु मिलि बैठे साथ।
तिन्है बन भवन एक है है जिनके मन हाथ॥1112॥
सुख दुख थिर कोऊ नहीं यह निहचै जिय जोइ।
दिन बीते निसि हात है निसि बीते दिन होइ॥1113॥
लाभ हानि की बिधि दोऊ एकै चित ठहिराहिं।
लहै न लेखो है कछू गए परेखो नाहिं॥1114॥
प्रभु राचे ते आनि कै यह गति करति उदोत।
भोग जोग मैं होत है जोग भोग मैं होत॥1115॥

भाव-संधि
उदय शांत सबल प्रौढ़ोक्ति-वर्णन

अब यहि भावन कौ सुनौ संधि उदै अरु साँत।
और सबल प्रौढ़ोक्ति जुत अपनी अपनी भाँत॥1116॥

त्रास एवं शंका भाव की संधि

बालम बारे सौति के आवन गये सुनाइ।
हरष संक के बीच तिय ऐंठी सी दरसाइ॥1117॥

भास एवं रोस भाव की संधि

इत प्रभु की आज्ञा नहीं उत रावन अभिमान।
त्रास रोष के बीच ही थकित भयो हनुमान॥1118॥

ब्रीड़ा एवं प्रीति-भाव की संधि

इत निज कुल की लाज उत मोहन प्रीति निहारि।
अहि निसि नेमऽरु प्रेम मधि संध्या हेरे नारि॥1119॥

गर्व भाबोदय

तुम जो हँसि वा बाम को बेंदी दीनो राति।
सील चढ़ाये सबन के चढ़ी सीस पै जाति॥1120॥

मान भाव में शान्ति का उदय

पिय हँसि गूँदे सीस जो भयो गरब तिय आइ।
सो कर जावक अरुनता देखत मिख्îौ बनाइ॥1121॥

अन्तरिज भावोदय शान्त

अटा दारि मैं निरखि हरि कौंधा कैसी छाँह।
चकृत ह्वै समुझे बहुरि लखि राधे को बाँह॥1122॥

सबल-लक्षण

मिटये निज निज आदि को आवै भाव जो अंत।
बिनु अन्तर इक काल में सोई सबल कहंत॥1123॥

भाव सबल का उदाहरण

को भो को कुल लाज यह बहुरि देखियो ताहि।
रे मन थिर ह्वै को धनी यह तिय मिलिहै जाहि॥1124॥
करत प्रथम तुक मैं दुतिय कै उर संक विशेषि।
तृतीय माहि धृत चौथ मैं चिंता चित अवरेषि॥1125॥

प्रीतिभाव की प्रौढ़ोक्ति

पीतम बँसुरी की सरिस सब जग ते करि ध्यान।
अधर लगै हरि के जियति बिछुरै बिछुरै प्रान॥1126॥

स्वकीया विषय भाव की प्रौढ़ोक्ति

बिछुरे पिय सपने निरखि तिय बिदेस अनुमानि।
चौंकि परी थहरी खरी पुरुष दूसरो जानि॥1127॥

नेम-कथन

सबै प्रच्छन्न प्रकास है वहै प्रगट उद्दोत।
भूत भविष्य वर्तमान पुनि भयो होइगो होत॥1128॥
सब बिसेख सामान्य है लच्छन सकल विशेखि॥1129॥
होइ कछू कुल लछनि ते सो सामान्य ऽबरेखि॥1129॥
जो रस उपजै आपसों सो सुनि सत जिय जानि।
होइ और के हेत तें सों पर निसत बखानि॥1130॥
ह्वै लच्छन जँह पाइये तिनि मैं अधिक जु होइ।
ताही को यह कहत हैं यह बरनत कबि लोइ॥1131॥
एक ओर की प्रीत अरु तिय आगे नर प्रीति।
अधम पूज्य सी प्रीति अरु चोरी सों रस रीति॥1132॥
हाँसो गुरुजन सिरि अरु उत्तम बधु उत्साह।
चोप बधनि मैं सोक पै रसाभास सब चाह॥1133॥
भाव न पूरन है जहाँ भावाभास है सोइ।
कृष्ण छाड़ि कै प्रीत ज्यौं और देव सों होइ॥1134॥
जैसे नायक नायिका इनहूँ कै आभास।
जेहि इनको सी रीति तें औरों कहैं प्रवास॥1135॥
पितु सुत बालक बालकहि बंधु बंधु सो नेह।
थाई भाव जहाँ दया बात सत्य रस एह॥1136॥

रसजनित रस-वर्णन

होत हाँस सिंगार ते करुन रौद्र ते जान।
बीरजनित अद्भुत कह्यौ बीभतस हित भया न॥1137॥

रस-शत्रु-वर्णन

रिपु बीभत्स सिंगार को अरु भय रिपु रस बीर।
-- -- -- -- -- -- -- -- -- --॥1138॥

-- -- -- --

प्रस्तावक

जो जैसो गुन करत है तैसो पावत भोग।
चख मुख कारज के उचित अधर पान के जोग॥1139॥
बड़े चातुरन ते सखी बड़े न पैयत भाग।
दृगन मीत काजर भयो माँगन मीत सुहाग॥1140॥
रे मन तेरो जगत मैं बिधि के हाथ निबाह।
दुखी मीन तन धरति हैं नित चुपरो की चाह॥1141॥
मैं जब देखों मुरज लौं नीच नरन की बात।
ज्यौं ज्यौं मुख मैं मारिये त्यौं त्यौं बोलत जात॥1142॥
है सत्रुन के भिरत यों होत लघुन को चाउ।
ज्यौं कूकुर कूकुर लरै कौवा पावत दाउ॥1143॥

सान्तरस को प्रस्तावक

ससि न धरत निज देत सो रंग रूप परवेष।
त्यौं ही आप अभेष पुनि देत सबन को बेष॥1144॥
यौं आयो प्रभु जगत में जब प्रभु जान्यौ नाहि।
ज्यौं रवि को जानत न दिन रवि आवत दिन माहिं॥1145॥
फेल रह्यौ सब जगत मैं देखि सकत नहिं कोइ।
रवि दिखाइ अधि रैनि को सो अब झूठो होइ॥1146॥
ऐसी बिधि सब जगत में प्रभु को सहित लखाइ।
ज्यौं दिनकर प्रति बिंब गुन दरपन देत जनाइ॥1147॥
ना पावत गुरु ज्ञान तें निगम अगम ते बात।
नारायन को नाम लै पारायन ह्वै जात॥1148॥
भले बुरे सब रावरें सुनि लीजै यह नाथ।
रचे आपुने हाथ सो लाज तिहारे हाथ॥1149॥

ग्रंथ की पूर्णता वर्णन

पूरन कीनो ग्रंथ मैं लै मुख प्रभु को नाम।
जा प्रसाद ते होत हैं सकल जगत को काम॥1150॥
सुधरयौ बरन बिगार है कुमति कुदूषन ल्याइ।
ठौरि ठौरि लखि रीझि हैं सुमति सरस रस पाइ॥1151॥
लिख्यौ ग्रंथ यह आगेह लोकन करि हित बुद्धि।
पै अब यासों सोधि कै ताहि कीजिये सुद्धि॥1152॥
ग्यारह सै चौबन सकल हिजरी संवत पाइ।
सब ग्यारह सै चौवन ने दोहा राखे ल्याइ॥1153॥

इति श्री हुसैनी बासती बिलगिरामी सैयद बाकर सुत

सैयद गुलामनबी

विरचित रस प्रबोध ग्रंथ समाप्तम॥