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राग केदारौ / पृष्ठ - २ / पद / कबीर

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चलत कत टेढौं टेढौं रे।
नउँ दुवार नरक धरि मूँदे, तू दुरगंधि को बैढी रे॥
जे जारे तौ होई भसमतन, तामे कहाँ भलाई॥
सूकर स्वाँन काग कौ भखिन, रहित किरम जल खाई।
फूटे नैन हिरदै नाहीं सूझै, मति एकै नहीं जाँनी॥
माया मोह ममिता सूँ बाँध्यो, बूडि मूवो बिन पाँनी॥
बारू के घरवा मैं बैठी, चेतन नहीं अयाँनाँ।
कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयाना॥311॥

अरे परदेसी पीव पिछाँनि।
कहा भयौ तोकौं समझि न परई, लागी कैसी बांनि॥टेक॥
भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ, कहा कियो कहि मोहि।
लाहै कारनि मूल गमावै, समझावत हूँ तोहि॥
निस दिन तोहि क्यूँ नींद परत है, चितवत नांही तोहि॥
जम से बैरी सिर परि ठाढे, पर हथि कहाँ बिकाइ।
झूठे परपंच मैं कहा लगौ, ऊंठे नाँही चालि॥
कहै कबीर कछू बिलम न कीजै, कौने देखी काल्हि॥312॥

भयौ रे मन पहुंनड़ौ दिन चारि।
आजिक काल्हिक मांहि चलौगो, ले किन हाथ सँवारि॥टेक॥
सौंज पराई जिनि अपणावै, ऐसी सुणि किन लेह।
यहु संसार इसी रे प्राँणी, जैसी धूँवरि मेह।
तन धन जीवन अंजुरी कौ पानी, जात न लागै बार।
सैवल के फूलन परि फूल्यो, गरब्यो कहाँ गँवार॥
खोटी खाटै खरा न लीया, कछू न जाँनी साटि।
कहै कबीर कछू बनिज न कीयौ, आयौ थौ इहि हाटि॥313॥

मन रे राम नामहिं जांनि।
थरहरी थूँनी परो मंदिर सूतौ खूँटी तानि॥टेक॥
सैन तेरी कोई न समझै, जीभ पकरी आंनि।
पाँच गज दोवटी माँगी, चूँन लीयो साँनि॥
बैसदंर पोषरी हांडी, चल्यौ लादि पलानि।
भाई बंध बोलइ बहु रे, काज कीनौ आँनि।
कहै कबीर या मैं झूठ नाँहीं, छाँड़ि जीय की बाँनि।
राम नाम निसंक भजि रे, न करि कुल की काँनि॥314॥

प्राणी लाल औसर चल्यौ रे बजाइ।
मुठी एक मठिया मुठि एक कठिया, संग काहू कै न जाइ॥टेक॥
देहली लग तेरी मिहरी सगी रे, फलसा लग सगी माइ।
मड़हट लूँ सब लोग कुटुंबी, हंस अकेलो जाइ।
कहाँ वे लौग कहाँ पुर पाटण, बहुरि न मिलबौ आइ।
कहै कबीर जगनाथ भजहु रे, जन्म अकारथ जाइ॥315॥

राम गति पार न पावै कोई।
च्यंतामणि प्रभु निकटि छाड़ि करि, भ्रंमि मति बुधि खोई॥टेक॥
तीरथ बरत जपै तप करि करि, बहुत भाँति हरि सोधै।
सकति सुहाग कहौ क्यूँ पावे, अछता कंत बिरोधै॥
नारी पुरिष बसै इक संगा, दिन दिन जाइ अबोलै।
तजि अभिमान मिलै नहीं पीव कूँ, ढूँढत बन बन डोलै॥
कहै कबीर हरि अकथ कथा है, बिरला कोई जानै।
प्रेम प्रीति बेधी अंतर गति, कहूँ काहि को मानै॥316॥

राम बिनां संसार धंध कुहेरा,
सिरि प्रगट्या जम का फेरा॥टेक॥
देव पूजि पूजि हिंदू मूये, तुरुक मूये हज जाई।
जटा बाँधि बाँधि जोगी मूये, कापड़ी के दारौ पाई॥
कवि कवीवै कविता मूये, कापड़ी के दारौ जाई।
केस लूंचि लूंचि मूये बरतिया, इनमें किनहुँ न पाई॥
धन संचते राजा मूये अरु ले कंचन भारी।
बेद पढे़ पढ़े पंडित मूये, रूप भूले मूई नारी।
जे नर जोग जुगति करि जाँनै, खोजै आप सरीरा।
तिनकूँ मुकति का संसा नाहीं, कहत जुलाह कबीरा॥317॥

कहूँ रे जे कहिबे की होइ।
नाँ को जाने नाँ को मानै ताथें अचिरज मोहि॥टेक॥
अपने अपने रंन के राजा, मांनत नाहीं कोइ।
अति अभिमान लोभ के घाले, अपनपौ खोइ॥
मैं मेरी करि यहु तन खोयो, समझत नहीं गँवार।
भौजलि अधफर थाकि रहे हैं, बूड़े बहुत अपार॥
मोहि आग्या दई दयाल दया करि, काहू कूँ समझाइ।
कहै कबीर मैं कहि कहि हार्यो, अब मोहिं दोष न लाइ॥318॥

एक कोस बन मिलांन न मेला।
बहुतक भाँति करै फुरमाइस, है असवार अेकला॥टेक॥
जोरत कटक जु धरत सब गढ़, करतब झेली झेला।
जोरि कटक गढ़ तोरि पातसाह, खेली चल्यो एक खेला॥
कूंच मुकांम जोग के घर मैं, कछू एक दिवस खटांनां।
आसन राखि बिभूति साखि दे, फुनि ले माटी उडांना॥
या जोगी की जुगति जू जांनै, सो सतगुर का चेला।
कहै कबीर उन गुर की कृपा थैं, तिनि सब भरम पछेला॥319॥