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राग गौड़ी / पृष्ठ - १० / पद / कबीर

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बिनसि जाइ कागद की गुड़िया, जब लग पवन तबै उग उड़िया॥टेक॥
गुड़िया कौ सबद अनाहद बोलै, खसम लियै कर डोरी डोलै॥
पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी, सीस धनै धुनि रोवै प्राँनी।
कहै कबीर भजि सारँगपानी, नाहीं तर ह्नैहै खैंचा तानी॥91॥

मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना॥टेक॥
माटी खोदहिं भीत उसारैं, अंध कहै घर मेरा॥
आवै तलब बाँधि लै चालैं, बहुरि न करिहै फेरा॥
खोट कपट करि यहु धन जोर्‌या, लै धरती मैं गाड्यौ॥
रोक्यो घटि साँस नहीं निकसै, ठौर ठौर सब छाड्यौ॥
कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै॥
गये पषनियाँ उझरी बाजी, को काहू कै आवै॥92॥


झूठे तन कौ कहा रखइये, मरिये तौ पल भरि रहण न पइये॥टेक॥
षीर षाँढ़ घृत प्यंउ सँवारा, प्राँन गये ले बाहरि जारा॥
चोवा चंदन चरनत अंगा, सो तन जरै काठ के संगा॥
दास कबीर यहु कीन्ह बिचारा, इक दिन ह्नैहै हाल हमारा॥93॥

देखहुक यह तन जरता है, घड़ी पहर बिलँबौ रे भाई जरता है॥टेक॥
काहै कौ एता किया पसारा, यह तन जरि करि ह्नैहै छारा॥
नव तन द्वादस लागा आगि, मुगध न चेतै नख सिख जागी॥
काम क्रोध घट भरे बिकारा, आपहिं आप जरै संसारा॥
कहै कबीर हम मृतक समाँनाँ, राम नाम छूटै अभिमाना॥94॥

तन राखनहारा को नाहीं, तुम्ह सोच विचारि देखौ मन माँही॥टेक॥
जोर कुटुंब आपनौ करि पारौं, मुंड ठोकि ले बाहरि जारौं॥
दगाबाज लूटैं अरु रोवै, जारि गाडि षुर षोजहिं षोवै॥
कहत कबीर सुनहुँ रे लोई, हरि बिन राखनहार न कोई॥95॥

अब क्या सोचै आइ बनी, सिर पर साहिब राम धनी॥टेक॥
दिन दिन पाप बहुत मैं कीन्हा, नहीं गोब्यंद की संक मनीं॥
लेट्यो भोमि बहुत पछितानी, लालचि लागौ करत धनीं॥
छूटी फौज आँनि गढ़ घेरौं, उड़ि गयौ गूडर छाड़ि तनीं॥
पकरौं हंस जम ले चाल्यौ मंदिर रोवै नारि धनीं॥
कहै कबीर राम कित सुमिरत, चीन्हत नाहिन एक चिनी॥
जब जाइ आइ पड़ोसी घेरौं, छाँड़ि चल्यौ तजि पुरिष पनीं॥96॥

सुबटा डरपत रहु मेरे भाई, तोहि डर ई देत बिलाई॥
तीनि बार रूँधै इक दिन मैं, कबहुँ कै खता खवाई॥टेक॥
या मंजारी मुगध न माँनै, सब दुनियाँ डहकाई॥
राणाँ राव रंक कौ व्यापै, करि करि प्रीति सवाई॥
कहत कबीर सुनहुँ रे सुबटा, उबरै हरि सरनाई॥
लाषौ माँहि तै लेत अचानक, काह न देत दिखाई॥97॥

का माँगूँ कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग जाई॥ टेक॥
इक लष पूत सवा लष नाती, ता रावन घरि दिया न बाती॥
लंका सी कोट समंद सी खाई, ता रावन का खबरि न पाई॥
आवत संग जात सँगाती, कहा भयौ दरि बाँधे हाथी॥
कहै कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ि जैसे चले जुवारी॥98॥

राम थोरे दिन को का धन करना, धंधा बहुत निहाइति मरना॥टेक॥
कोटि धज साह हस्ती बँधी राजा, क्रिपन को धन कौनें काजा॥
धन कै गरबि राम नहीं जाना, नागा ह्नै जंम पै गुदराँनाँ॥
कहै कबीर चेतहु रे भाई, हंस गया कछु संगि न जाई॥99॥

काह कूँ माया दुख करि जोरी, हाथि चूँन गज पाँच पछेवरी॥टेक॥
नाँ को बँध न भाई साँथी, बाँधे रहे तुरंगम हाथी॥
मैड़ो महल बावड़ी छाजा, छाड़ि गये सब भूपति राजा॥
कहै कबीर राम ल्यौ लाई, धरी रही माया काहू खाई॥100॥
टिप्पणी: ख-मैडा पहल अरु सोभित छाजा।