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राग गौड़ी / पृष्ठ - ९ / पद / कबीर

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माई रे चूँन बिलूँटा खाई, वाघनि संगि भई सबहिन कै, खसम न भेद लहाई॥टेक॥
सब घर फोरि बिलूँटा खायौ, कोई न जानैं भेव।
खसम निपूतौ आँगणि सूतौ, राँड न देई लेव॥
पाडोसनि पनि भई बिराँनी, माँहि हुई घर घालै।
पंच सखी मिलि मंगल गाँवैं, यह दुख याकौं सालै॥
द्वै द्वै दीपक धरि धरि जोया, मंदिर सादा अँधारा।
घर घेहर सब आप सवारथ, न हरि किया पसारा॥
होत उजाड़ सबै कोई जानै, सब काहू मनि भावै।
कहै कबीर मिलै जौ सतगुर, तौ यहु चून छुड़ावै॥81॥
टिप्पणी: ख-खसम न भेद लषाई।

विषिया अजहू सख आसा, हूँण न देइ हरि के चरन निवासा॥टेक॥
सुख माँगे दुख पहली आवै, तातै सुख माँग्याँ नहीं भावै॥
जा सुख थें सिव बिरंचि डराँनाँ, सो मुख हमहु साच करि जाना।
सुखि छ्या ड्या तब सब दुख भागा, गुर के सबद मेरा मन लागा॥
निस बासुरि विषैतनाँ उपगार, विषई नरकि न जाताँ बार।
कहैं कबीर चंचल मति त्यागी, तब केवल राम नाम त्यौं लागी॥82॥
टिप्पणी: ख-हौन देई न हरि के चरन निवास॥

तुम्ह गारडू मैं विष का माता, कहै न जिवावौ मेरे अमृतदाता॥टेक॥
संसार भवंगम डसिले काया, अरु दुखदारन व्यापै तेरी माया॥
सापनि क पिटारै जागे, अह निसी रोवै ताकूँ फिरि फिरि लागैं।
कहै कबीर को को नहीं राखे, राम रसाँइन जिनि जिनि चाखे॥83॥

माया तजूँ तजी नहीं जाइ, फिर फिर माया मोहे लपटाइ॥टेक॥
माया आदर माया मान, माया नहीं तहाँ ब्रह्म गियाँन॥
माया रस माया कर जाँन, माया करनि ततै परान॥
माया जप तप माया जोग, माया बाँधे सबही लोग॥
माया जल थलि माया आकासि, माया व्यापि रही चहुँ पासि॥
माया माता माया पिता, असि माया अस्तरी सुता॥
माया मारि करै व्यौहार, कहैं कबीर मेरे राम अधार॥84॥

ग्रिह जिनि जाँनी रूड़ौ रे।
कंचन कलस उठाइ लै मंदिर, राम कहै बिन धूरौ रे॥टेक॥
इन ग्रिह मन डहके सबहिन के, काहू कौ पर्‌यो न पूरौ रे॥
राजा राणाँ राव छत्रापति, जरि भये भसम कौं कूरौ रे॥
सबथैं नीकौ संत मँडलिया, हरि भगतनि कौं भेरौ रे॥
गोविंद के गुन बैठे गैहैं, खैहैं, टूकौ टेरौ रे॥
ऐसौं जानि जाँपौं जगजीवन, जग सूँ तिनका तोरौं रे॥
कहै कबीर राम भजबे कौं, एक आध कोई सूरौ रे॥85॥

रजसि मीन देखी बहु पानी, काल जाल की खबरि न जानी॥टेक॥
गारै गरबनौ औघट घाट, सो जल छाड़ि बिकानौं हाट॥
बँध्यो न जानैं जल उदमादि, कहै कबीर सब मोहे स्वादि॥86॥

काहै रे मन दह दिस धावै, विषिया संगि संतोष न पावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ कलपैं तहाँ बंधना, तरन कौ थाल कियौं तैं रथनाँ॥
जौ पै सुख पइयत इन माँही, तौ राज छाड़ि कत बन कौं जाँहीं॥
आनँद सहत तजौ विष नारी, अब क्या झीषै पतित भिषारी॥
कहै कबीर यहु सुख दिन चारि, तजि विषिया भजि चरन मुरारि॥87॥

जियरा जाहि गौ मैं जाँनाँ, जो देखा सो बहुरि न पेष्या माटी सूँ लपटाँनाँ॥टेक॥
बाक्ल बसतर किया पहरिबा, का तप बनखंडि बास॥
कहा मूगध रे पाँहन पूजै, काजल डारै गाता॥
कहै कबीर सुर मुनि उपदेसा, लोका पंथि लगाई॥
सुनौ संतौ सुमिरौ भगत जन, हरि बिन जनम गवाई॥88॥


हरि ठग जग कौ ठगौरी लाई, हरि कै वियोग कैसे जीऊँ मेरी माई॥टेक॥
कौन पूरिष कौ काकी नारी, अभिअंतरि तुम्ह लेहु बिचारी॥
कौन पूत को काको बाप, कौन मरैं कौन करै संताप॥
कहै कबीर ठग सौं मन माना, गई ठगौरी ठग पहिचाना॥89॥

साईं मेरे साजि दई एक डोली, हस्त लोक अरु मैं तैं बोली॥टेक॥
हक झंझर सम सूत खटोला, त्रिस्ना बाद चहुँ दिसि डोला॥
पाँच कहार का भरम न जाना, एकै कह्या एक नहीं माना॥
भूमर थाम उहार न छावा, नैहर जात बहुत दुख पावा॥
कहै कबीर बन बहुत दुख सहिये, राम प्रीति करि संगही रहिये॥90॥
टिप्पणी: कहै कबीर बहुत दुख सहिये॥