भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राग गौड़ी / पृष्ठ - ८ / पद / कबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई पीवै रे रस राम नाम का, जो पीवै सो जोगी रे।
संतौ सेवा करौ राम की, और न दूजा भोगी रे॥टेक॥
यहु रस तौ सब फीका भया, ब्रह्म अगनि परजारी रे।
ईश्वर गौरी पीवन लागे, राँम तनीं मतिवारी रे॥
चंद सूर दोइ भाठी कीन्ही सुषमनि चिगवा लागी रे।
अंमृत कूँ पी साँचा पुरया, मेरी त्रिष्णाँ भागी रे॥
यहु रस पीवै गूँगा गहिला, ताकी कोई न बूझै सार रे।
कहै कबीर महा रस महँगा, कोई पीवेगा पीवणहार रे॥71॥
टिप्पणी: ख-चंद सूर दोइ किया पयाना।
 

उनमनि चढ्या महारस पीवै।
अवधू मेरा मन मतिवारा, उन्मनि चढ़ा मगन रस पीवै त्रिभवन भया उजियारा॥टेक॥
गुड़ करि ग्यान ध्याँन कर महुवा भव भाठी करि भारा॥
सुषमन नारी सहजि समानी, पीयै पीवनहारा॥
दोइ पुड़ जोड़ि चिगाई भाठी, चुया महा रस भारी॥
काम क्रोध दोइ किया पलीता, छुटि गई संसारी॥
सुंनि मंडल मैं मँदला बाजै, तहाँ मेरा मन नाचै।
गुर प्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमनाँ काछै॥
पूरा मिल्या तबैं सुख उपज्यौ, तन की तपनि बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी॥72॥
टिप्पणी: ख-पूरा मिल्या तबै सुष उपनाँ॥

छाकि परो आतम मतिवारा, पीवत राँम रस करत बिचारा॥टेक॥
बहुत मोलि महँगे गुड़ पावा, लै कसाब रस राँम चुवावा॥
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा, माँगि माँगि रस पीवै बिचारा॥
कहै कबीर फाबी मतिवारी, पीवत राम रस लगी खुमारी॥73॥

बोलौ भाई राम की दुहाई,
इहि रसि सिव सनकादिक माते, पीवत अजहूँ न अघाई॥टेक॥
इला प्यंगुला भाठी कीन्हीं, ब्रह्म अगनि परजारी।
ससि हरसूर द्वार दस मूँदें, लागी जोग जुग तारी॥
मन मतिवाला पीवै राँम रस, दूजा कछू न सुहाई।
उलटी गंग नीर बहि आया, अमृत धार चुवाई॥
पंच जने सो सँग करि लीन्हें, चलत खुमारी लागी।
प्रेम पियालै पीवन लागे, सोवत नागिनी जागी॥
सहज सुंनि मैं जिनि रस चाष्या सतगुर थैं सुधि पाई॥
दास कबीर इही रसि माता, कबहुँ उछकि न जाई॥74॥

राम रस पाईया रे, ताथैं बिसरि गये रस और॥टेक॥
रे मन तेरा को नहीं खैंचि लेइ जिनि भार।
विरषि बसेरा पंषि का, ऐसा माया जाल॥
और मरत को रोइए, जो आपा थिर न रहाइ।
जो उपज्या सो बिन सिहै ताथैं दुख करि मरै बलाइ।
जहाँ उपज्या तहाँ फिरि रच्या रे, पीवत मरदन लाग॥
कहै कबीर चित चेतिया, ताथैं राम सुमरि बैराग॥75॥

राम चरन मनि भाये रे।
अस ढरि जाहु राम के करहा, प्रेम प्रीतिल्यौ लाये रे॥टेक॥
आँब चढ़ी अँबली रे अँबली बबूर चढ़ी नगबेली रे।
द्वै रथ चढ़ि गयौ राँड कौ करहा, मन पाटी की सैली रे॥
कंकर कूई पतालि पनियाँ, सूनै बूँद बिकाई रे।
बजर परौ इति मथुरा नगरी, काँन्ह पियासा जाई रे॥
एक दहिड़िया दही जमायौ, दूसरी परि गई साई रे॥
न्यूँति जिमाऊ अपनौ करहा छार मुनिस कौ डारी रे।
इहि बँनि बाजै मदन भेरि रे, उहि बँनि बाजे तूरा रे।
इहि बँनि खेले राही रुकमनि, उहिं बनि कान्हा अहीरा रे।
आसि पासि तुरसी कौ बिरवा, माँहि द्वारिका गाँऊ रे।
तहाँ मेरो ठाकुर राम राइ है, भगत कबीरा नाऊँ रे॥76॥

थिर न रहै चित थिर न रहै, च्यंतामणि तुम्ह कारणि हौ।
मन मैले मैं फिर फिर आहौं, तुम सुनहु न दुख बिसरावन हो॥टेक॥
प्रेम खटोलवा कसि कसि बाँध्यो, बिरह बान तिहि लागू हो।
तिहि चढ़ि इँदऊ करत गवँसिया, अंतर जमवा जागू हो॥
महरु मछा मारि न जाँनै, गहरै पैठा धाई हो।
दिन इक मगरमछ लै खैहै, तब को रखिहै बंधन भाई हो॥
महरू नाम हरइये जाँनै, सबब न बूझै बौरा हो।
चारै लाइ सकल जग खायो, तऊ न भेट निसहरा हो॥
जो महराज चाहौ महरईये, तो नाथौ ए मन बौरा हो।
तारी लाइकैं सिष्टि बिचारौ, तब गाहि भेटि निसहुरा हो॥
टिकुटि भइ काँन्ह के कारणि, भ्रमि भ्रमि तीरथ कीन्हाँ हो।
सो पद देहु मोरि मदन मनोहर, जिहि पदि हरि मैं चीन्हाँ हो॥
दास कबीर कीन्ह अस गहरा, बूझै कोई महरा हो।
यह संसार जात मैं देखौं, ठाढ़ौ रहौ कि निहुरा हो॥77॥

बीनती एक राम सुनि थोरी, अब न बचाइ राखि पति मोरी॥टेक॥
जैसैं मंदला तुमहि बजावा, तैसैं नाचत मैं दुख पावा॥
जे मसि लागी सबै छुड़ावौ, अब मोहिं जनि बहु रूप कछावौ॥
कहैं कबीर मेरी नाच उठावौ, तुम्हारे चरन कँवल दिखलावो॥78॥

मन थिर रहै न घर है मेरा, इन मन घर जारे बहुतेरा॥टेक॥
घर तजि बन बाहरि कियौ बास, घर बने देखौं दोऊ निरास॥
जहाँ जाँऊँ तहाँ सोग संताप, जुरा मरण कौ अधिक बियाप॥
कहै कबीर चरन तोहि बंदा, घर मैं घर दे परमानंदा॥79॥

कैसे नगरि करौं कुटवारी, चंचल पुरिष बिचषन नारी॥टेक॥
बैल बियाइ गाइ भई बाँझ, बछरा दूहै तीन्यूँ साँझ॥
मकड़ी धरि माषी छछि हारी, मास पसारि चीन्ह रखवारी॥
मूसा खेटव नाव बिलइया, मीडक सोवै साप पहरइया॥
निति उठि स्याल स्यंघ सूँ झूझै, कहै कबीर कोई बिरला बूझै॥80॥