राग गौड़ी / पृष्ठ - १४ / पद / कबीर
राम न जपहु कहा भयौ अंधा राम बिना जँम मैले फंधा॥टेक॥
सुत दारा का किया पसारा, अंत की बेर भये बटपारा॥
माया ऊपरि माया माड़ी, साथ न चले षोषरी हाँड़ा॥
जपौ राम ज्यूँ अंति उबारै, ठाढ़ी बाँह कबीर पुकारै॥128॥
डगमग छाड़ि दै मन बौरा।
अब तौ जरें बरें बनि आवै, लीन्हों हाथ सिंधौरा॥टेक॥
होइ निसंक मगन ह्नै नाचौ, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ॥
सूरौ कहा मरन थैं डरपैं, संतों न संचैं भाड़ौ॥
लोक वेद कुल की मरजादा, इहै कलै मैं पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहै ह्नै है जग मैं हाँसी॥
यह संसार सकल है मैला, राम कहै ते सूवा।
कहै कबीर नाव नहीं छाँड़ौं, गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥129॥
का सिधि साधि करौं कुछ नाहीं, राम रसाँइन मेरी रसनाँ माँहीं॥टेक॥
नहीं कुछ ग्याँन ध्याँन सिधि जोग, ताथैं उपजै नाना रोग।
का बन मैं बसि भये उदास, जे मन नहीं छाड़ै आसा पास॥
सब कृत काच हित सार, कहै कबीर तजि जग ब्यौहार॥130॥
जीवत कछु न कीया प्रवानाँ, मूवा मरम को काँकर जाना॥
जौं तैं रसना राम न कहियो, तौ उपजत बिनसत भरमत रहियौ॥टेक॥
जैसी देखि तरवर की छाया, प्राँन गये कहु काकी माया॥
संधि काल सुख कोई न सोवै, राजा रंक दोऊ मिलि रोवै॥
हंस सरोवर कँवल सरीरा, राम रसाइन पीवै कबीरा॥131॥
का नाँगे का बाँधे चाम, जौ नहीं चीन्हसि आतम राम॥टेक॥
नागे फिरें जोग जे होई, बन का मृग मुकुति गया कोई॥
मूँड़ मूड़ायै जौ सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुँची कोई॥
ब्यंद राखि जे खेलै है भाई, तौ षुसरै कौंण परँम गति पाई॥
पढ़ें गुनें उपजै अहंकारा, अधधर डूबे वार न पारा॥
कहै कबीर सुनहु रे भाई, राम नाम किन सिधि पाई॥132॥
हरि बिन भरमि बिगूते गदा।
जापै जाऊँ आपनपौं छुड़ावण, ते बीधे बहु फंधा॥टेक॥
जोगी कहै जोग सिधि नीकी, और दूजी भाई॥
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, ऐ जु कहै सिधि पाई॥
जहाँ का उपज्या तहाँ बिलाना, हरि पद बिसर्या जबहिं॥
पंडित गुँनी सूर कवि दाता, ऐ जु कहैं बड़ हँमहीं॥
वार पार की खबरि न जाँनी, फिरौं सकल बन ऐसैं॥
यहु मन बोहि थके कउवा ज्यूँ, रह्यौ ठग्यौ सो वैसैं॥
तजि बावैं दाँहिणै बिकार, हरि पद दिढ़ करि गहिये॥
कहै कबीर गूँगे गुड़ खाया, बूझै तो का कहिये॥133॥
चलौ बिचारी रहौ सँभारी, कहता हूँ ज पुकारी।
राम नाम अंतर गति नाहीं, तौ जनम जुवा ज्यूँ हारी॥टेक॥
मूँड़ मुड़ाइ फूलि का बैठे, काँननि पहरि मजूसा।
बाहरि देह षेह लपटानीं, भीतरि तौ घर मूसा॥
गालिब नगरी गाँव बसाया, हाँम काँम हंकारी।
घालि रसरिया जब जँम खैंचे, तब का पति रहै तुम्हारी॥
छाँड़ि कपूर गाँठि विष बाँध्यौ, मूल हुवा ना लाहा।
मेरे राम की अभौ पद नगरी, कहै कबीर जुलाहा॥134॥
कौन बिचारि करत हौ पूजा, आतम राम अवर नहीं दूजा॥टेक॥
बिन प्रतीतैं पाती तोड़, ग्याँन बिनाँ देवलि सिर फोड़ै॥
लुचरी लपसी आप संधारै, द्वारै ठाढ़ा राम पुकारै॥
पर आत्म जौ तत बिचारै, कहि कबीर ताकै बलिहारै॥135॥
कहा भयौ तिलक गरै जपमाला, मरम न जानैं मिलन गोपाला॥टेक॥
दिन प्रति पसू करै हरिहाई, गरैं काठ बाकी बाँनि न जाई।
स्वाँग सेत करणी मनि काली, कहा भयौ गलि माला घाली॥
बिन ही प्रेम कहा भयौ रोये, भीतरि मैल बाहरि का धोये॥
गल गल स्वाद भगति नहीं धीर, चीकन चंदवा कहै कबीर॥136॥
ते हरि आवेहि काँमाँ, जे नहीं आतम रामाँ॥टेक॥
थोरी भगति बहुत अलंकारा, ऐसे भगता मिलैं अपारा॥
भाव न चीन्हैं हरि गोपाला, जानि क अरहट कै गलि माला॥
कहै कबीर जिनि गया अभिमाना, सो भगता भगवंत समानाँ॥137॥
कहा भयौ रवि स्वाँग बनायौ, अंतरजामी निकट न आयौ॥टेक॥
विषई विषे ढिढावै, गावै, राम नाम मनि कबहूँ न भावै॥
पापी परलै जाहि अभागै, अमृत छाड़ि विषै रसि लागे॥
कहै कबीर हरि भगति न साधी, भग मुषि लागि मूये अपराधी॥138॥
जौ पैं पिय के मनि नाहीं भाये, तौ का परोसनि कै हुलसाये॥टेक॥
का चूरा पाइल झमकायें, कहा भयौ बिछुवा ठमकायें॥
का काजल स्यंदूर कै दीयैं, सोलह स्यंगार कहा भयौ कीयै॥
अंजन मंजन करै ठगौरी, का पचि मरै निगौडी बौरी॥
जौ पै पतिब्रता ह्नै नारी, कैसे ही रही सो पियहिं पियारी॥
तन मन जीवन सौपि सरीरा, ताहि सुहागिन कहै कबीरा॥139॥
दूभर पनियाँ भर्या न जाई, अधिक त्रिषा हरि बिन न बुझाई॥टेक॥
उपरि नीर ले ज तलि हारी, कैसे नीर भरे पनिहारी॥
उधर्यौ कूप घाट भयौ भरी, चली निरास पंच पनिहारी॥
गुर उपदेश भरी ले नीरा, हरषि हरषि जल पीवै कबीरा॥140॥
टिप्पणी: ख-जल बिनु न बुझाई।