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राग गौड़ी / पृष्ठ - १३ / पद / कबीर

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गोब्यंदा गुँण गाईये रे, ताथैं भाई पाईये परम निधान॥टेक॥
ऊंकारे जग ऊपजै, बिकारे जग जाइ।
अनहद बेन बजाइ करि रह्यों गगन मठ छाइ॥
झूठै जग डहकाइया रे क्या जीवण की आस।
राम रसाँइण जिनि पीया, तिनकैं बहुरि न लागी रे पियास॥
अरघ षिन जीवन भला, भगवत भगति सहेत।
कोटि कलप जीवन ब्रिथा, नाँहिन हरि सूँ हेत॥
संपति देखि न हरषिये, बिपति देखि न रोइ।
ज्यूँ संपति त्यूँ बिपति है करता करै सु होइ॥
सरग लोक न बाँछिये, डरिये न नरक निवास।
हूँणा थाँ सो ह्नै रह्या, मनहु न कीजै झूठी आस॥
क्या जप क्या तप संजमाँ, क्या तीरथ ब्रत स्नान।
जो पै जुगति जाँनियै, भाव भगति भगवान॥
सँनि मंडल मैं सोचि लै, परम जोति परकास॥
तहूँवा रूप न रेष है, बिन फूलनि फूल्यौ रे आकास॥
कहै कबीर हरि गुण गाइ लै, सत संगति रिदा मँझारि।
जो सेवग सेवा करै, तो सँगि रमैं रे मुरारि॥121॥
टिप्पणी: ख-भगवंत भजन सहेत॥

मन रे हरि भजि हरि भजि हरि भज भाई।
जा दिन तेरो कोई नाँही, ता दिन राम सहाई॥टेक॥
तंत न जानूँ मंत न जानूँ, जानूँ सुंदर काया।
मीर मलिक छत्रापति राजा, ते भी खाये माया॥
बेद न जानूँ, भेद न जानूँ, जानूँ एकहि रामाँ॥
पंडित दिसि पछिवारा कीन्हाँ, मुख कीन्हौं जित नामा।
राज अंबरीक के कारणि, चक्र सुदरसन जारै।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसौ, भगत की सरन उबारै॥122॥


राम भणि राम भणि राम चिंतामणि, भाग बड़े पायौ छाड़ै जिनि॥टेक॥
असंत संगति जिनि जाइ रे भूलाइ, साथ संगति मिलिं हरि गुँण गाइ।
रिदा कवल में राखि लुकाइ, प्रेम गाँठि दे ज्यूँ छूटि न जाइ।
अठ सिधि नव निथि नाँव मँझारि, कहै कबीर भजि चरन मुरारि॥123॥

निरमल निरमल राम गुण गावै, सौ भगता मेरे मनि भावै॥टेक॥
जे जन लेहिं राम नाँउँ, ताकी मैं बलिहारी जाँउँ॥
जिहि घटि राम रहे भरपूरि, ताकी मैं चरनन की धूरि॥
जाति जुलाहा मति कौ धीर, हरषि हरषि गुँण रमैं कबीर॥124॥

जा नरि राम भगति नहीं साथी, सो जनमत काहे न मूवौ अपराथी॥टेक॥
गरभ मूचे मुचि भई किन बाँझ, सकर रूप फिरै कलि माँझ।
जिहि कुलि पुत्र न ग्याँन बिचारी, बाकी विधवा काहे न भई महतारी।
कहै कबीर नर सुंदर सरूप, राम भगत बिन कुचल करूप॥125॥

राम बिनाँ धिग्र धिग्र नर नारी, कहा तैं आइ कियौ संसारी॥टेक॥
रज बिना कैसो रजपूत, ग्यान बिना फोकट अवधूत॥
गनिका कौ पूत कासौ कहैं, गुर बिन चेला ग्यान न लहै॥
कबीर कन्याँ करै स्यंगार, सोभ न पावै बिन भरतार॥
कहै कबीर हूँ कहता डरूँ, सुषदेव कहै तो मैं क्या करौं॥126॥

जरि जाव ऐसा जीवनाँ, राजा राम सूँ प्रीति न होई।
जन्म अमोलिक जात है, चेति न देखै कोई॥टेक॥
मधुमाषी धन संग्रहै, यधुवा मधु ले जाई रे।
गयौ गयौ धन मूँढ़ जनाँ, फिरि पीछैं पछिताई रे॥
विषिया सुख कै कारनै, जाइ गानिका सूँ प्रीति लगाई रे।
अंधै आगि न सूझई, पढ़ि पढ़ि लोग बुझाई रे॥
एक जनम कै कारणैं, कत पूजौ देव सहँसौ रे।
काहे न पूजौ राम जी, जाकौ भगत महेसौ रे॥
कहै कबीर चित चंचला, सुनहू मूढ़ मति मोरी।
विषिय फिर फिर आवई, राजा राम न मिले बहोरी॥127॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
राम न जपहु कवन भ्रम लाँगे।
मरि जाहहुगे कहा कहा करहु अभागे॥टेक॥
राम राम जपहु कहा करौ वैसे, भेड कसाई कै घरि जैसे।
राम न जपहु कहा गरबना, जम के घर आगै है जाना॥
राम न जपहु कहा मुसकौ रे, जम के मुदगरि गणि गणि खहुरे।
कहै कबीर चतुर के राइ, चतुर बिना को नरकहि जाइ॥130॥