राग गौड़ी / पृष्ठ - १२ / पद / कबीर
हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा॥टेक॥
सुत अपराध करै दिन केते, जननी कै चित रहै न तेते॥
कर गहि केस करे जौ घाता, तऊ न हेत उतारै माता॥
कहैं कबीर एक बुधि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी॥111॥
गोब्यदें तुम्ह थैं डरपौं भारी, सरणाई आयौ क्यूँ गहिये, यहु कौन बात तुम्हारी॥टेक॥
धूप दाझतैं छाँह तकाई, मति तरवर सचपाऊँ॥
तरवर माँहै ज्वाला निकसै, तौ क्या लेई बुझाऊँ॥
जे बन जलैं त जल कुँ धावै, मति जल सीतल होई॥
जलही माँहि अगनि जे निकसै, और न दूजा कोई॥
तारण तिरण तूँ तारण, और न दूजा जानौं॥
कहै कबीर सरनाँई आयौ, अपनाँ देव नहीं मानौं॥112॥
मैं गुलाँम मोहि बेच गुसाँई, तन मन धन मेरा रामजी के ताँई॥टेक॥
आँनि कबीरा हाटि उतारा, सोई गाहक बेचनहारा॥
बेचै राम तो राखै कौन राखै राम तो बेचै कौन॥
कहै कबीर मैं तन मन जाना, साहब अपनाँ छिन न बिसार्या॥113॥
अब मोहि राम भरोसा तेरा,
जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥
कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥114॥
जियरा मेरा फिरै रे उदास, राम बिन निकसि न जाई साँस, अजहूँ कौन आस॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाँऊँ राम मिलावै न कोई, कहौ संतौ कैसे जीवन होई॥
जरै सरीर यहु तन कोई न बुझावै, अनल दहै निस नींद न आवै॥
चंदन घसि घसि अंग लगाऊँ, राम बिना दारुन दुख पाऊँ।
सतसंगति मति मनकरि धीरा, सहज जाँनि रामहि भजै कबीरा॥115॥
राम कहौ न अजहूँ केते दिना, जब ह्नै है प्राँन तुम्ह लीनाँ॥टेक॥
भौ भ्रमत अनेक जन्म गया, तुम्ह दरसन गोब्यंद छिन न भया॥
भ्रम्य भूलि परो भव सागर, कछु न बसाइ बसोधरा॥
कहै कबीर दुखभंजना, करौ दया दुरत निकंदना॥116॥
हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव, हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव॥टेक॥
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहुरिया।
किया स्यंगार मिलन कै ताँई, काहे न मिलौ राजा राम गुसाँई॥
अब की बेर मिलन जो पाँऊँ, कहै कबीर भौ जलि नहीं आँऊँ॥117॥
राम बान अन्ययाले तीर, जाहि लागे लागे सो जाँने पीर॥टेक॥
तन मन खोजौं चोट न पाँऊँ, ओषद मूली कहाँ घसि लाँऊँ॥
एकही रूप दीसै सब नारी, नाँ जानौं को पियहि पियारी॥
कहै कबीर जा मस्तिक भाग, नाँ जानूँ काहु देइ सुहाग॥118॥
आस नहिं पूरिया रे, राम बिन को कर्म काटणहार॥टेक॥
जद सर जल परिपूरता, पात्रिग चितह उदास।
मेरी विषम कर्म गति ह्नै परा, ताथैं पियास पियास॥
सिध मिलै सुधि नाँ मिलै, मिलै मिलावै सोइ॥
सूर सिध जब भेटिये, तब दुख न ब्यापै कोइ॥
बौछैं जलि जैसें मछिका, उदर न भरई नीर॥
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवा, जन ताला बेली कबीर॥119॥
राम बिन तन की ताप न जाई, जल मैं अगनि उठी अधिकाई॥टेक॥
तुम्ह जलनिधि मैं जल कर मीनाँ, जल मैं रहौं जलहि बिन षीनाँ।
तुम्ह प्यंजरा मैं सुवनाँ तोरा, दरसन देहु भाग बड़ा मोरा॥
तुम्ह सतगुर मैं नौतम चेला, कहै कबीर राम रमूं अकेला॥120॥