राग गौड़ी / पृष्ठ - ३ / पद / कबीर
तननाँ बुनना तज्या कबीर, राम नाम लिखि लिया शरीर॥टेक॥
जब लग भरौं नली का बेह, तब लग टूटै राम सनेह॥
ठाड़ी रोवै कबीर की माइ, ए लरिका क्यूँ जीवै खुदाइ।
कहै कबीर सुनहुँ री माई, पूरणहारा त्रिभुवन राइ॥21॥
जुगिया न्याइ मरै मरि जाइ।
धर जाजरौ बलीडौ टेढ़ौ, औलोती डर राइ॥टेक॥
मगरी तजौ प्रीति पाषे सूँ डाँडी देहु लगाइ।
छींको छोड़ि उपरहि डौ बाँधा, ज्यूँ जुगि जुगि रहौ समाइ।
बैसि परहडी द्वार मुँदावौं, ख्यावों पूत घर घेरी।
जेठी धीय सासरे पठवौं, ज्यूँ बहुरि न आवै फेरी॥
लहुरी धीइ सवै कुश धोयौ, तब ढिग बैठन माई।
कहै कबीर भाग बपरी कौ, किलिकिलि सबै चुकाँई॥22॥
मन रे जागत रहिये भाई।
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मूसै घर जाई॥टेक॥
षट चक की कनक कोठड़ी, बसत भाव है सोई।
ताला कूँजी कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई॥
पंच पहरवा सोइ गये हैं, बसतै जागण लोगी।
करत बिचार मनहीं मन उपजी, नाँ कहीं गया न आया।
कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया॥23॥
चलन चलन सब को कहत है, नाँ जाँनौं बैकुंठ कहाँ है॥टेक॥
जोजन एक प्रमिति नहिं जानै, बातन ही बैकुंठ बषानै।
जब लग है बैकुंठ की आसा, तब लग नाहीं हरि चरन निवासा॥
कहें सुनें कैसें पतिअइये, जब लग तहाँ आप नहिं जइये।
कहै कबीर बहु कहिये काहि, साध संगति बैकुंठहि आहि॥24॥
अपने विचारि असवारी कीजै, सहज के पाइड़े पाव जब दीजे॥टेक॥
दै मुहरा लगाँम पहिराँऊँ, सिकली जीन गगन दौराऊँ।
चलि बैकुंठ तोहि लै तारों, थकहि त प्रेम ताजनैं मारूँ॥
जन कबीर ऐसा असवारा, बेद कतेब दहूँ थैं न्यारा॥25॥
अपनैं मैं रँगि आपनपो जानूँ, जिहि रंगि जाँनि ताही कूँ माँनूँ॥टेक॥
अभि अंतरि मन रंग समानाँ, लोग कहैं कबीर बौरानाँ।
रंग न चीन्हैं मुरखि लोई, जिह रँगि रंग रह्या सब कोई॥
जे रंग कबहूँ न आवै न जाई, कहै कबीर तिहिं रह्या समाई॥26॥
झगरा एक नवेरो राम, जें तुम्ह अपने जन सूँ काँम॥टेक॥
ब्रह्म बड़ा कि जिनि रू उपाया, बेद बड़ा कि जहाँ थैं आया।
यह मन बड़ा कि जहाँ मन मानै, राम बड़ा कि रामहि जान।
कहै कबीर हूँ खरा उदास, तीरथ बड़े कि हरि के दास॥27॥
दास रामहिं जानि है रे, और न जानै कोइ॥टेक॥
काजल दइ सबै कोई, चषि चाहन माँहि बिनाँन।
जिनि लोइनि मन मोहिया, ते लोइन परबाँन॥
बहुत भगति भौसागरा, नाँनाँ विधि नाँनाँ भाव।
जिहि हिरदै श्रीहरि, भेटिया, सो भेद कहूँ कहूँ ठाउँ॥
तरसन सँमि का कीजिये, जौ गुनहिं होत समाँन।
सींधव नीर कबीर मिल्यौ है, फटक न मिल पखाँन॥28॥
कैसे होइगा मिलावा हरि सनाँ, रे तू विषै विकार न तजि मनाँ॥टेक॥
रे तै जोग जुगति जान्याँ नहीं, तैं गुर का सबद मान्याँ नहीं।
गंदी देही देखि न फूलिये, संसार देखि न भूलिये॥
कहै कबीर राम मम बहु गुँनी, हरि भगति बिनाँ दुख फुनफुनी॥29॥
कासूँ कहिये सुनि रामा, तेरा मरम न जानै कोई जी।
दास बबेकी सब भले, परि भेद न छानाँ होई जी॥टेक॥
ए सकल ब्रह्मंड तैं पूरिया, अरु दूजा महि थान जी।
राम रसाइन रसिक है, अद्भुत गति बिस्तार जी॥
भ्रम निसा जो गत करे, ताहि सूझै संसार जी॥
सिव सनकादिक नारदा, ब्रह्म लिया निज बास जी।
कहै कबीर पद पंक्याजा, अष नेड़ा चरण निवास जी॥30॥