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राग गौड़ी / पृष्ठ - ४ / पद / कबीर

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मैं डोरै डारे जाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥टेक॥
सूत बहुत कुछ थोरा, ताथै, लाइ ले कंथा डोरा।
कंथा डोरा लागा, तथ जुरा मरण भौ भागा॥
जहाँ सूत कपास न पूनी, तहाँ बसै इक मूनी।
उस मूनीं सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
मेरे डंड इक छाजा, तहाँ बसै इक राजा।
तिस राजा सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
जहाँ बहु हीरा धन मोती, तहाँ तत लाइ लै जोती।
तिस जोतिहिं जोति मिलाँऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
जहाँ ऊगै सूर न चंदा, तहाँ देख्या एक अनंदा।
उस आनँद सूँ लौ लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
मूल बंध इक पावा, तहाँ सिध गणेश्वर रावाँ।
तिस मूलहिं मूल मिलाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
कबीरा तालिब तेरा, जहाँ गोपत हरी गुर मोरा।
तहाँ हेत हरि चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥31॥

संतौं धागा टूटा गगन बिनसि गया, सबद जु कहाँ समाई।
ए संसा मोहि निस दिन व्यापै, कोइ न कहैं समझाई॥टेक॥
नहीं ब्रह्मंड पुँनि नाँही, पंचतत भी नाहीं।
इला प्यंगुला सुखमन नाँही, ए गुण कहाँ समाहीं।
नहीं ग्रिह द्वारा कछू नहीं, तहियाँ रचनहार पुनि नाँहीं।
जीवनहार अतीत सदा संगि, ये गुण तहाँ समाँहीं॥
तूटै बँधै बँधै पुनि तूटै, तब तब होइ बिनासा।
तब को ठाकुर अब को सेवग, को काकै बिसवासा॥
कहै कबीर यहु गगन न बिनसै, जौ धागा उनमाँनाँ।
सीखें सुने पढ़ें का कोई, जौ नहीं पदहि समाँना॥32॥

ता मन कौं खोजहु रे भाई, तन छूटे मन कहाँ समाई॥टेक॥
सनक सनंदन जै देवनाँमी भगति करी मन उनहुँ न जानीं।
सिव विरंचि नारद मुनि ग्यानी, यन का गति उनहुँ नहीं जानीं॥
धू प्रहिलाद बभीषन सेषा, तन भीतर मन उनहुँ न देषा।
ता मन का कोइ जानै भेव, रंचक लीन भया सुषदेव॥
गोरष भरथरी गोपीचंदा, ता मन सौं मिलि करै अनंदा।
अकल निरंजन सकल सरीरा, ता मन सौं मिलि रहा कबीरा॥33॥

भाई रे बिरले दोसत कबीरा के, यहु तत बार बार काँसो कहिये।
भानण घड़ण सँवारण संम्रथ, ज्यूँ राषै त्यूँ रहिये॥टेक॥
आलम दुनों सबै फिरि खोजी, हरि बिन सकल अयानाँ।
छह दरसन छ्यानबै पाषंड, आकुल किनहुँ न जानाँ॥
जप तप संजम पूजा अरचा, जोतिग जब बीरानाँ।
कागद लिखि लिखि जगत भुलानाँ, मनहीं मन न समानाँ॥
कहै कबीर जोगी अरु, जंगम ए सब झूठी आसा।
गुर प्रसादि रटौ चात्रिग ज्यूँ, निहचैं भगति निवासा॥34॥

कितेक सिव संकर गये ऊठि, राम समाधि अजहूँ नहिं छूटि॥टेक॥
प्रलै काल कहुँ कितेक भाष, गये इंद्र से अगणित लाष।
ब्रह्मा खोजि परो गहि नाल, कहै कबीर वै राम निराल॥35॥

अच्यंत च्यंत ए माधौ, सो सब माँहिं समानाँ।
ताह छाड़ि जे आँन भजत हैं, ते सब भ्रंमि भुलाँनाँ॥टेक॥
ईस कहै मैं ध्यान न जानूँ, दुरलभ निज पद मोहीं।
रंचक करुणाँ कारणि केसो, नाम धरण कौं तोहीं॥
कहौ थौं सबद कहाँ थै आवै, अरु फिर कहाँ समाई।
सबद अतीत का मरम न जानै, भ्रंमि भूली दुनियाई॥
प्यंड मुकति कहाँ ले कीजै, जो पद मुकति न होई।
प्यंडै मुकति कहत हैं मुनि जन, सबद अतीत था सोई॥
प्रगट गुपत गुपत पुनि प्रगट, सो कत रहै लुकाई।
कबीर परमानंद मनाये, अथक कथ्यौ नहीं जाई॥36॥

सो कछू बिचारहु पंडित लोई, जाकै रूप न रेष बरण नहीं कोई॥टेक॥
उपजै प्यंड प्रान कहाँ थैं आवै, मूवा जीव जाइ कहाँ समावै।
इंद्री कहाँ करिहि विश्रामा, सो कत गया जो कहता रामा।
पंचतत तहाँ सबद न स्वादं, अलख निरंजन विद्या न बादं।
कहै कबीर मन मनहि समानाँ, तब आगम निगम झूठ करि जानाँ॥37॥

जौं पैं बीज रूप भगवाना, तौ पंडित का कथिसि गियाना॥टेक॥
नहीं तन नहीं मन नहीं अहंकारा, नहीं सत रज तम तीनि प्रकारा॥
विष अमृत फल फले अनेक, बेद रु बोधक हैं तरु एक।
कहै कबीर इहै मन माना, कहिधूँ छूट कवन उरझाना॥38॥

पाँडे कौन कुमति तोहि लागी, तूँ राम न जपहि अभागी॥टेक॥
वेद पुरान पढ़त अस पाँडे खर चंदन जैसैं भारा।
राम नाम तत समझत नाँहीं, अंति पड़ै मुखि छारा॥
बेद पढ्याँ का यहु फल पाँडे, सब घटि देखैं रामा।
जन्म मरन थैं तौ तूँ छूटै, सुफल हूँहि सब काँमाँ॥
जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहाँ है भाई।
आपन तौ मुनिजन ह्नै बैठे, का सनि कहौं कसाई ॥
नारद कहै ब्यास व्यास यौं भाषैं, सुखदेव पूछौ जाई।
कहै कबीर कुमति तब छूटै, जे रहौ राम ल्यौ लाई ॥39॥

पंडित बाद बदंते झूठा।
राम कह्माँ दुनियाँ गति पावै, षाँड कह्माँ मुख मीठा ॥टेक॥
पावक कह्माँ मूष जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्माँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई ॥
नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूँ उड़ि जाइ जंगल में, बहुरि न सुरतै आनै ॥
साची प्रीति विषै माया सूँ, हरि भगतनि सूँ हासी।
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यौ जमपुरि जासी ॥40॥