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राजघाट पर घूमते हुए / विमलेश त्रिपाठी

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दूर-दूर तक फैली इस परती में
बेचैन आत्मा तुम्हारी
पोसुए हरिनों की तरह नहीं भटकती ?
 
कर्मठ चमड़ी से चिपटी तुम्हारी सफ़ेद इच्छाएँ
मुक्ति की राह खोजते
जल कर राख हो गईं
चंदन की लकड़ी और श्री ब्राँड घी में
और किसी सफ़ेदपोश काले आदमी के हाथों
पत्थरों की तह में गाड़ दी गईं
मंत्रों की गुँजार के साथ
...पाक रूह तुम्हारी काँपी नहीं??
 
अच्छा, एक बात तो बताओ पिता-
विदेशी कैमरों के फ्लैश से
चौंधिया गई तुम्हारी आँखें
क्या देख पा रही हैं
मेरे या मेरे जैसे
ढठियाए हुए करोड़ो चेहरे???
 
तुम्हारी पृथ्वी के नक्शे को नंगा कर
सजा दिया गया
तुम्हारी नंगी तस्वीरों के साथ
सजा दी गई
तुम्हे डगमग चलाने वाली कमर घड़ी
(तुम्हारी चुनौती)
 
रूक गई वह
और रूक गया सुबह का चार बजना??
 
और पिता
तुम्हारे सीने से निकले लोहे से नहीं
मुँह से निकले 'राम' से
बने लाखों हथियार
जिबह हुए कितने निर्दोष
 
क्या दुख नहीं हुआ तुम्हे?
 
शहर में हुए
हर हत्याकाण्ड के बाद
पूरे ग्लैमर के साथ गाया गया-
रघुपति राघव राजा राम
माथे पर तुम्हारे
चढ़ाया गया
लाल-सफेद फूलों का चूरन
 
बताओं तुम्हीं लाखों-करोड़ों के जायज पिता
आँख से रिसते आँसू
पोंछे किसी लायक पुत्र ने??
 
तुम्हारे चरखे की खादी
और तुम्हारे नाम की टोपी
पहन ली सैकड़ों -लाखों ने
 
कितने चले
तुम्हारे टायर छाप चप्पलों के पीछे...??