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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 5
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रामप्रेम ही सार है-5
(45)
राज सुरे स पचासकको बिधि के करको जो पटो लिखि पाँए।
पूत सुपूत, पुनीत प्रिया , निज सुंदरताँ रतिको मदु नाएँ।।
संपति-सिद्धि सबै ‘तुलसी’ मनकी मनसा चितवैं चितु लाएँ।
जानकी जीवनु जाने बिना जग ऐसेउ जीव न जीव कहाएँ।।
(46)
कुसगात ललात जो रोटिन को, घरवात घरें खुरपा-खरिया।
तिन्ह सोनेके मेरू-से ढेर लहे,मनु तौ न भरो, घरू पै भरिया।।
‘तुलसी’ दुख दूनो दसा दुहँ देखि, कियो मुखु दारिद को करिया।
तजि आस भो दासु रघुप्पतिको, दसरत्थको दानि दया-दरिया।।