राम कहानी / देवेन्द्र आर्य
तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
जोड़े हैं थोड़े से पैसे
इतने थोड़े
जितने में एक छत भी नहीं हुआ करती है
जितने में निबाह करने को
जग की रीत मना करती है।
अब कितना कम खाता, बोलो
मन को कस में रख्खा लेकिन तन को क्या समझाता, बोलो
तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
काटे हैं दिन ऐसे वैसे
जिन्हें काट पाना साधारणतः आसान नहीं होता है
पीठ भले हो जाए लेकिन
कौन यहाँ कन्धा होता है
तुम्हें क्या पता मैनें कैसे टक्कर ली उस बाघ-समय से
जिसके होने की आशंका भी
बी०पी० दुगना करती है।
थोड़ा नगद, उधारी ज़्यादा
दमा से मैं टकराया ले कर इन्व्हेलर की जगह जोशाँदा
तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
कई नाम से कई तरह से
ज़िन्दा रह के पोसा है इस छोटी-सी अपनी दुनिया को
जैसे होरी पोस रहा था
अपने भीतर की धनिया को
तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
तीन की रक्षा की है छय से
मण्डी जिसकी राम कहानी फन्दे डाल बुना करती है।
नाकारा हूँ मैंने माना
दुनिया का पुरुषार्थ यही है
चाहे जैसे नोट कमाना
तुम इण्टरनेट पर जितना व्यय करते होगे
मैं उतने में
चौथ भेज सकता था अपनी सद्यः परिणीता बेटी का
और बचा सकता था उसको जीवन भर सुनने से ताना
फटी जेब बाप बन जाना
मन को मार के मन बहलाना
मेरी दुखियारी बेटी ही मेरे लिए दुआ करती है।