रोटी की परिधि पर निरन्तर घूमना मुझे... / मुकेश निर्विकार
बेहद क्रूर है अपना ‘समय’-
नीरा अपराधी,
छीन ली है इसने
मुझसे
मेरी तमाम ‘काल-राशि’,
जीवन का सारा अवकाश,
फुर्सत व सुकून के पल,
सभी हर्षोल्लास जीवन के,
सभी खुशियाँ रखीं रेहन!
धकेला है इसने मुझे
गहरी अंधेरी खोह में
दीखती जिसमें नहीं
प्रकाश की कोई किरन
नाहक हाथ-पैर
पटक रहा हूँ मैं
इधर-उधर...
बेमतलब भाग दौड़ है
मेरे जीवन की!
जीवन में
तनिक भी
अवकाश नहीं है
एक अदद ठहरे हुए
पल के लिए
इक लम्बे अरसे से
लालायित हूँ मैं!
क्या सतत भटकाव
सहने के ही वास्ते
घूमती हुई इस धरा पर
उतारा गया हूँ मैं?
मुझे ही शांत स्थिर बैठने की
क्यों सीख देते हो
क्यों घूम रहे हैं ये
तमाम ग्रह व उपग्रह?
उद्देलित है ये सतत
अनादि काल से!
अपनी-अपनी पीड़ाओं से
अब तक क्यों नहीं उबरे?
सारी समस्याओं के हल
मुझी से मत पूछो
युग की तमाम
गुत्थियों के हल
नहीं है मेरे पास!
निखालिस एक अदना-सा
इंसान ही तो हूँ
कोई महामानव या
ईश का अवतार नहीं हूँ।
पिस रहा हूँ
निश्छल मन
समय के
पाषाण-पाटों में
सुकोमल भावनाओं को
मसल कर
बिल रही रोटी!
खुला तांडव कट रहा है
अनीति और अन्याय का
मेरे ही शील सदाचार
मुझे कमजोर किए है|
तमाम छल-फरेब
तुल गये
समय की तुला पर
छानकर दूर फेंक दिया
ईमान का कचरा!
मेरी बुराइयाँ आज
मेरी ढाल बनी हैं
उनसे ही झेल प रहा हूँ
युग के घातक प्रहार!
सचाई आज
जा छुपी है
किसी अंधेरी खोह में
ढूंढने की उसे
अब फुर्सत
किसी को भी तो नहीं!
निरापद नहीं हूँ मैं
अब तो
खुद अपनी ही देह में
घातक समय ही
बह रहा है
मेरे लहू में!
नींद के अवकाश को भी
आराम मत कहो
अवचेतन में गहरा रही है
तमाम दुश्वारीयां!
युग की विडम्बनाओं के
कोल्हू में जूटा हूँ मैं
रोटी की परिधि पर
निरन्तर घूमना मुझे...