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लंका काण्ड / भाग 9 / रामचंद्रिका / केशवदास

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हनुमंत गये तबहीं जहँ सीता।
तब जाय कही जय की सब गीता।।
पग लागि कह्यो जननी पगु धारौ।
मग चाहत हैं रघुनाथ तिहारौ।।153।।
सिगरे तन भूषन भूषित कीने।
धरि कै कुसुमावलि अंग नवीने।।
द्विज देवनि बदि पढ़ी सुभ गीता।
तब पावक अंक चली चढ़ि सीता।।154।।

भुजंगप्रयात छंद

सवस्त्रा सबै अंग शृंगार सोहैं।
विलोके रमा देव देती विमोहैं।।
पिता-अंक ज्यौं कन्यका शुभ्रगीता।
लसै अग्नि के अंक त्यौं शुद्ध सीता।।155।।
महादेव के नेत्र की पुत्रिका सी।
कि संग्राम की भूमि मैं चंडिका सी।
मनौ रत्नसिंहासनस्था सची है।
किधौं रागिनी राग पूरे रची है।।156।।
गिरापूर में है पयोदेवता सी।
किधौं कंज की मंजु शोभा प्रकासी।।
किधौं पद्म ही मैं सिफाकंद सोहै।
किधौं पद्म के कोष पद्मा विमोहै।।157।।
कि सिंदूरशैलाग्र मैं सिद्ध कन्या।
किधौं पद्मिनी सूर-संयुक्त धन्या।।
सरोवासना है मनौ चारु बानी।
जपा पुष्प के बीच बैठी भवानी।।158।।
मनौ औषधी वृंद मैं रोहिणी सी।
कि दिग्दाह मैं देखिए योगिनी सी।।
धरा पुत्र ज्यौं स्वर्ण माला प्रकासै।
मनौ ज्योति सी, तच्छकाभोग (तच्छक$आभोग, तक्षक नामक सर्प का फण) भासै।।159।।

सुरेंद्रबज्रा छंद

आसावरी माणिक कुंभ शोभै अशोकलग्ना वनदेवता सी।
पालाशमाला कुसुमालि मध्ये वसंतलक्ष्मी शुभलक्षणा सी।।
आरत्तपत्रा शुभि चित्र पुत्री मनौ विराजै अति चारुवेषा।
संपूर्ण सिंदूर प्रभा सुमंडी गणेश भास्लथल चंद्ररेखा।।160।।

विजय छंद

है मणिदर्पण मैं प्रतिबिंब के प्रीति हिये अनुरक्त अमीता।
पुंज प्रताप मैं कीरति सी तप तेजन मैं मनौ सिद्धि विनीतां।
ज्यौं रघुनाथ तिहारियै भक्ति लसै उर केसव के शुभ गीता।
त्यौं अवलोकिय आनंदकंद हुतासन मध्य सवासन सीता।।161।।
(दोहा) इंद्र वरुण यम सिद्ध सब, धर्म सहित धनपाल।
ब्रह्म रुद्र लै दशरथहिं आय गये तेहि काल।।162।।

वसंततिलका छंद

अग्नि- श्री रामचंद्र यह संतत शुद्ध सीता।
ब्रह्मादि देव सब गावत शुभ्र गीता।।
हूजै कृपालु गहिजै जनकात्मजाया।
योगीश ईश तुम हो यह योगमाया।।163।।
श्रीरामचंद्र हँसि अंक लगाय लीन्हों।
संसार साक्षी शुभ पावक आनि दीन्हों।।
देवान दुंदुभि बजाय सुगीत गाये।
त्रैलोक्य लोचन चकोरनि चित्र भाये।।164।।

स्वदेश प्रत्यागम

(दोहा) वानर राच्दस रिच्छ सब मित्र कलत्र समेत।
पुष्पक चढ़ि रघुनाथ जू चले अवधि के हेत।।165।।

चंचरी छंद

सेतु सीतहिं सोभना दरसाइ पंचवटी गये।
पइयाँ लागि अगस्त्य के पुन अत्रियो तें बिदा भये।।
चित्रकूट विलोकि कै तब ही प्रयाग बिलोकियो।
भरद्वाज बसैं लदाँ जितने न पावन है बियो।।166।।

त्रिवेणी वर्णन

चंद्रकला

भवसागर की जनु सेतु उजागर, सुंदरता सिगरी बस की।
तिहुँ देवन की द्युति सी दरसै गति संखै त्रिद खन के रस की।।
कहि केसव वेदत्रयी मति सी, परितापत्रयी तल कों मसकी।
सब वदै त्रिकाल त्रलोक त्रिवेणिहिं, केतु त्रिविक्रम (विष्णु का यह विराट रूप त्रिविक्रम कहलाता है जिसमें इसी अवसर पर ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल के जल से विष्णु भगवान के पाँव धोए थे जिससे त्रिपथगा गंगा प्रवाहित हुई। त्रिवेणी में गंगा जी की प्रधानता विशेष रूप से परिलक्षित हैं, इसी से वह विष्णु के यश की पताका है।) के जस की।।167।।

भारद्वाज आश्रम वर्णन

दंडक

लक्ष्मण- केसोदास मृगज बछेरू चूसैं बाघिनीन,
चाटत सुरभि बाघ बालक-वदन है।
सिंहन की सटा (गर्दन के बाल, अयाल) ऐंचैं कलम करनि करि,
सिंहन कौ आसन गयंद को रदन है।।
फनी के फनन पर न चत मुदित मोर,
क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन है।
बानर फिरत डोरे डोरे (डोरिआए डोरिआए, साथ लिये हुए।) अंघ तापसनि,
सिव कौ समाज कैधौं ऋषि को सदन है।।168।।

भुजंगप्रयात छंद

गहे केसपासै प्रियासी बखानौं।
कँपै साप के त्रास तैं गात मानौ।।
मनौं चंद्रमा चंद्रिका चारु साजैं।
जरा सों मिले यों भरद्वाज राजैं।।169।।
(दोहा) भस्मत्रिपुंडस्र सौभिजै, बरनत बुद्धि उदार।
भनौ त्रिस्त्रोतास्रोत द्युति, वंदत लगी लिलार।।170।।
फटिकमाल सुभ सोभिजै, उर ऋषिराज उदार।
अमली सकल श्रुतिवरनमय, मनौ गिरा को हार।।171।।

पद्धटिका छंद

सीता समेत शेषावतार। दंडवत किये ऋषि के अपार।।
नरवेष विभीषण जामवंत। सुग्रीव बालिसुत हनूमंत।।172।।
ऋषिराज करी पूजा अपार। पुनि कुशल प्रश्न पूँछी उदार।
शत्रुघ्न भरत कुसली निकेत। सब मित्र मंत्री मातन समेत।।173।।

तोटक छंद

राम- हनुमंत बली तुम जाहु तहाँ।
मुनि-वेष भरत्थ वसंत जहाँ।।
ऋषि के हम भोजन आजु करैं।
पुनि प्रात भरत्थहिं अंक भरैं।।174।।