लंका काण्ड / भाग 8 / रामचंद्रिका / केशवदास
कोटि भाँतिन पौन तें मन तें महा लघुता (शीघ्रता) लसै।
बैठिकै ध्वज अग्र श्रीहनुमंत अंतक ज्यौं हँसै।।
रामचंद्र प्रदच्छिना करि दच्छ ह्वै जबहीं चढ़े।
पुष्प वर्षि बजाय दुंदुभि देवता बहुधा बढ़े।।134।।
राम कौ रथ मध्य देखत क्रोध रावन के बढ़यो।
बीस बाहुन की सरावलि व्योम भूतल सों मढ़यो।।
सैल ह्वै सिकता गये सब दृष्टि के बल संहरे।
ऋच्छ बानर भेदि तच्छन लच्छधा छतना करे।।135।।
सुंदरी छंद
बानन साथ बिधे सब बानर।
जाय परे मलयाचल की धर।।
सूरजमंडल मैं एक रोवत।
एक अकासनदी मुख धोवत।।136।।
एक गये यमलोक सहे दुख।
एक कहैं भव भूतन सौं रुख।
एक ते सागर माँझ परे मरि।
एक गये बड़वानल में जरि।।137।।
मोटनक छंद
श्रीलक्ष्मण कोप करयो जबहीं।
छोड़यो सर पावक को तबहीं।।
जारयो सर पंजर छार करयो।
नैऋत्यन (राक्षस) को अति चित्त डरयो।।138।।
दौरै हनुमंत बली बल सों।
लै अंगद संग सबै दल सों।।
मानौं गिरिराज तजे डर कों।
घेरैं चहूँ ओर पुरंदर कों।।139।।
हरिच्छंद
अंगद रनअंगन सब अंगन मुरझाइ कै।
ऋच्छपतिहिं अच्छरिपुहिं लच्छगति बुझाइ कै।।
बानरगन बानन सन केसव जबहीं मुरयो।
रावन दुखदावन जगपावन समुहे जुरयो।।140।।
ब्रह्मरूपक छंद
इन्द्रजीत जीत आनि रोकियो सुबान तानि।
छोड़ि दीन वीर बानि कान के प्रमान आनि।।
स्यौं पताक काटि चाप चर्म बर्म मर्न छेदि।
जात भो रसातलै असेस कंठमाल भेदि।।141।।
दंडक छंद
सूरज (सुग्रीव) मुसल, नील पट्टिस, परिघ नल,
जामवंत असि, हनू तोमर प्रहारे हैं।
परसा सुखेन, कंुत केशरी, गवय शूल,
विभीषण गदा, गज भिंदिपाल (गोफन) तारे है।।
मोगरा द्विविद, तीर कटरा, कुमुद नेजा,
अंगद सिला, गवाक्ष विटप बिदारे हैं।
अकुश शरभ, चक्र दधिमुख, शेष शक्ति
बान तीन रावन श्रीरामचंद्र मारे हैं।।142।।
(दोहा) द्वै भुज श्रीरघुनाथ सौं, बिरचे युद्ध विलास।
बाहु अठारह यूथपनि, मारे केसौदास।।143।।
गंगोदक छंद
युद्ध जोइ जहाँ भाँति जैसी करै
ताहि ताही दिसा रोकि राखै तहीं।
अस्त्र लै आपने शस्त्र काटै सबै
ताहि केहूँ केहूँ घाव लागै नहीं।।
दौरि सौमित्र लै बाण कोदंड ज्यों
खडी खंडी ध्वजा धीर छत्रावली।
शैल-शृगावली छोड़ि मानौ उड़ी
एक ही बेर कै हंस-बंसावली।।144।।
त्रिभंगी छंद
लछमन शुभ लच्छन बुद्धि बिचच्छन रावन सैं सिर छोड़ दयी।
बहु बाननि छंडै जे सिर खंडै तै फिर मंडै शोभ नयी।।
यद्यपि रनपंडित, गुन-गन मंडित, रिपु बल खंडित, भूल रहे।
तजि मन बच कायक, सूर सहायक, रघुनायक सों वचन कहे।।145।।
ठाढ़ो रण राजत, केहुँ न भाजत, तन मन लाजत, सब लायक।
सुनि श्रीरघुनंदन, मुनिजन वंदन, दुष्ट निकंदन, सुखदायक।।
अब टरै न टारयो, मरै न मारयो, हौं हठि हारयो धरि सायक।
रावन नहिं मारत देव पुकारत ह्वै अति आरत जगनायक।।146।।
रावन वध
छप्पै
राय- जेहि सर मधु मद मरदि महासुर मर्दनउ कीन्हे।
मारेउ कर्कश नर्क, शख हति शंख जो लीन्हेउ।।
निष्कंटक सुर-कटक करयो कैटभबपु खंड्यो।
खर दूषन त्रिसिरा कबध तरु खंड विहंड्यो।।
कुंभकरन जेहि संहरयो पल न प्रतिज्ञा ते टरौं।
तेहि बान प्रान दसकंठ के कंठ दसौं खंडित करौं।।147।।
(दोहा) रघुपति पठया आसुही, असुहर बुद्धिनिधान।
दससिर दसहूँ दिसन कों, बलि दै आयो बान।।148।।
मदनमनोरमा छंद
भुव भारहि संयुक्त राकस को
गण जाइ रसातल मैं अनुराग्यो।
जग मैं जय शब्द समेतिहिं केसव
राज विभीषन के सिर जाग्यों।।
मय दानव नंदिनि के सुख सों
मिलि कै सिय के हिय को दुख भाग्यो।
सुर दुंदुभि सीस गजा (चोब, नगाड़ा बजाने की) सर राम को।
रावन के सिर साथहि लाग्यो।।149।।
विजय छंद
मंदोदरी- जीति लिये दिगपाल, सची के
उसासन देवनदी सब सूकी।
बासरहू निसि देवन की,
नर देवन की रहै संपति ढूकी।।
तीनहुँ लोकन की तरुनीन
की बारी बँधी हुती दंड दुहू की।
सेवत स्वान शृंगाल सौं रावन
सोवत सेज परे अब भू की।।150।।
तारक छंद
राम- अब जाहु विभीषन रावन लैकै।
सकलत्र सबंधु क्रिया सब कैकै।।
जन सेवक संपत्ति कोष सँभारौ।
मयनंदिनि के सिगरे दुख टारौ।।151।।
सीता की अग्नि परीक्षा
राम- जय जाय कहौ हनुमंत हमारौ।
सुख देवहु दीरघ दुःख बिदारौ।।
सब भूषन भूषित कै सुभ गीता।
हमको तुम वेगि दिखावहु सीता।।152।।